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जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २९५ अच्छा हुआ, यह केशर कितनी सुन्दर और सुगन्धित है। यह एक संसार-दृष्टि है । संसार-दृष्टि का अर्थ है-अशुभ पर द्वेष करना और शुभ पर राग करना। परन्तु एक अध्यात्मवादी व्यक्ति की दष्टि में काली स्याही का दाग और केशर का दाग दोनों समान हैं। स्वच्छ वस्त्र पर चाहे काली स्याही का धब्बा हो, अथवा केशर का धब्बा हो, दोनों ही उस वस्त्र की मूल स्वच्छता एवं धवलता के लिए घातक एवं बाधक हैं । वस्त्र की स्वच्छता बनाये रखने के लिए, दोनों से ही बच कर रहना आवश्यक है। दोनों ही धब्बों में वस्त्र के शुद्ध स्वरूप का नाश होता है । वस्त्र की जितनी दूरी में वह धब्बा रहता है, फिर चाहे वह धब्बा कालो स्याही का हो अथवा केशर का हो, वस्त्र की स्वच्छता में बाधक ही है, साधक नहीं हो सकता। यदि किसी श्वेत वस्त्र को केशर के रंग से रंग दिया जाए, तो संसार की दृष्टि में उस वस्त्र का मूल्य बढ़ जाता है, इसके विपरीत यदि किसी स्वच्छ वस्त्र को कीचड़ में लथपथ कर दिया जाए, तो संसार की दृष्टि में उस वस्त्र का मूल्य गिर जाता है, किन्तु एक अध्यात्मवादी साधक की दृष्टि में दोनों हो विकार हैं, चाहे वह केशर हो, चाहे वह कीचड़ हो । क्योंकि वस्त्र का जो निज स्वरूप था और उसका जो श्वेत रूप था, वह तो दोनों ही स्थितियों में समाप्त हो जाता है। वस्त्र की स्वच्छता और स्वस्थता दोनों ही स्थितियों में नष्ट हो जाती है । इसी प्रकार आत्मा में चाहे पुण्य का केशर डालो और चाहे पाप का कीचड़ डालो, आत्मा की पवित्रता दोनों ही स्थितियों में नहीं रह सकती। अध्यात्मवादी दर्शन कहता है, कि पुण्य भले ही अनुकूल है, पाप भले ही प्रतिकूल है, परन्तु दोनों ही आत्मा का अहित करते हैं और दोनों ही आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का घात करते हैं। पुण्य और पाप दोनों ही विकार हैं, दोनों ही बन्धन हैं और दोनों ही आकुलता रूप होने से आत्मा का अहित करने वाले हैं; यही परमार्थ-दृष्टि है और यही अध्यात्म-दृष्टि है।
एक प्रश्न और उठता है। पूछा जाता है, कि मोक्ष की स्थिति में चारित्र रहता है या नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि द्रव्य-चारित्र तो वहाँ नहीं रहता, परन्तु भाव-चारित्र वहाँ अवश्य रहता है । द्रव्य चारित्र का अर्थ है-बाह्य क्रिया-काण्ड एवं बाह्य नियम और उपनियम । यह तो इसी जीवन के लिए स्वीकार किए जाते हैं । इस जीवन की अन्तिम श्वास तक तो ये जीवन के साथ रह
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