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३३२ | अध्यात्म प्रवचन
मैं आपसे सम्यक् दर्शन की चर्चा कर रहा था, और यह बता रहा था, कि अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में सम्यक् दर्शन के कितने विविध रूप हो सकते हैं । सम्यक् दर्शन के विविध रूपों की संक्षेप में मैंने यहाँ चर्चा की है । अध्यात्मवादी सम्यक् दर्शन, सांस्कृतिक सम्यक् दर्शन, सामाजिक सम्यक् दर्शन, परलोकवादी सम्यक् दर्शन और कर्मवादी सम्यक् दर्शन का संक्षेप में मैं परिचय दे चुका है। एक सम्यक् दर्शन और है - जिसे शास्त्रवादी अथवा पोथीवादी सम्यक् दर्शन भी कहा जा सकता है । जो पंथ और परम्परा किसी पुस्तक विशेष में अथवा किसी पोथी विशेष में विश्वास रखता है और कहता है, कि जो कुछ इसमें विहित है, वही सत्य है, वही कर्तव्य है और वही धर्म है । यह एक प्रकार का विश्वास है, जिसका प्रसार और प्रचार प्राचीनकाल में भी था और आज भी है । सत्य किसी पोथी विशेष में नहीं रहता, बल्कि वह तो मानव के चिन्तन और अनुभवों में ही रहता है । पोथीवादी परम्पराओं का प्रभाव जैन-संस्कृति पर एवं जैन धर्म पर भी पड़ा और उसमें भी शास्त्रवादी एवं पोथीवादी सम्यक् दर्शन का प्रसार होने लगा । जीवन के प्रत्येक सत्य को जब किसी पुस्तक की कसौटी पर कसा जाता है, तब उस सत्य के साथ यह एक प्रकार का अन्याय ही होता है । सत्य स्वयं अपने आप में अखण्ड एवं अनन्त होता है, किन्तु एक पंथवादी व्यक्ति यह विचार करता है, और यह विश्वास करता है, कि जो कुछ मेरी पोथी में उल्लिखित है, वही सत्य है । उससे बाहर कहीं पर भी सत्य नहीं है । यह एक पंथवादी मनोवृत्ति का पोथीवादी विश्वास कहा जा सकता है, किन्तु वास्तविक विश्वास नहीं । वास्तविक सम्यक् दर्शन तो यही है, अपनी आत्मा में आस्था रखना ।
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