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३३० | अध्यात्म-प्रवचन सम्प्रदायों में ही नहीं, जैन-धर्म में भी परलोक के सुखों का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है । स्वर्ग, नरक और मोक्ष का सांगोपांग वर्णन अध्यात्मवादी सभी पंथों में उपलब्ध होता है । परन्तु वस्तुतः परलोक क्या है और उसे कैसे सुधारा जा सकता है ? इस पर बहुत कम लोग विचार कर पाते हैं। परलोक की जो सबसे व्यापक और सर्वमान्य परिभाषा हो सकती है, वह यह है, कि जब आत्मा एक स्थूल शरीर को छोड़कर अन्य योनि में पहुँच कर अन्य स्थूल शरीर को धारण करता है, तब यही परलोक कहलाता है। जो आत्मा सम्यक दृष्टि होता है। उसे न परलोक का भय रहता है और न इस लोक का ही भय उसे रहता है। जब सम्यक दृष्टि ने मिथ्यात्वमूलक पाप का परित्याग कर दिया, तब फिर उसे इस जन्म में, या पर जन्म में भय किस बात का ? परलोक का एक अद्यतन अर्थ सामाजिक भी है, कि अपने से भिन्न लोक अर्थात् जनता । इस अर्थ में यदि परलोक का अर्थ किया जाता है, तो परलोक सुधारने का अर्थ होगा-मानव-समाज का सुधार । मानव मात्र के ही नहीं, बल्कि प्राणिमात्र के सुधार में विश्वास रखना, यह भी एक प्रकार का सम्यक् दर्शन है। मानव-समाज का सुख एवं दुःख बहुत कुछ अंशों में तत्कालीन समाज-व्यवस्था का परिणाम होता है। अतः अपने सत्प्रयत्नों से स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में कर्तव्य को मोड़ देना ही चाहिए। इस अर्थ में परलोक का सम्यक् दर्शन यही है, कि जिस परलोक का सुधार हमारे हाथ में है, उसका सुधार अहिंसा और समता के आधार पर यदि हम करें, तो निश्चय ही मानव-जाति का बहुत कुछ कल्याण किया जा सकता है। यहाँ करने का अर्थ कर्तृत्व का अहं नहीं, मात्र निमित्तता है ।।
जैन-दर्शन इस सत्य को स्वीकार करता है, कि अपना उत्थान और अपना पतन, स्वयं आत्मा के अपने हाथ में है। जीव का जैसा कर्म होता है, शुभ अथवा अशुभ, वैसा ही उसे फल मिल जाता है । इसके अतिरिक्त यह कहना कि कर्म हम करते हैं और उसका फल कोई अन्य देता है, सबसे बड़ा मिथ्यात्व है । मनुष्य स्वयं अपने भाम्य का विधाता है। वह स्वयं अपने कर्म का कर्ता है और वह स्वयं ही उसके फल का भोक्ता भी है। बन्धन-बद्ध रहना आत्मा का स्वभाव नहीं है, बंधन से विमुक्त रहना ही आत्मा का निज स्वरूप है। परन्तु इस संसारी आत्मा की स्थिति उस पक्षी के समान है, जो चिरकाल से पिंजड़े में बन्द रहने के कारण अपनी स्वतन्त्रता को भूल चुका है।
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