Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 322
________________ सम्यक् दर्शन के विविध रूप | ३२६ क्षता व्यवहार का विषय है । जब एक व्यक्ति यह कहता है मैं रंक हूँ, मैं राजा हैं, मैं बलवान है, मैं निर्बल हैं, मैं काला है और मैं गोरा हूँ। यह कथन अभूतार्थ है, क्यों कि यह परसापेक्ष है। इसके अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं न शरीर हूँ, न इंद्रिय हूँ, न मन हूँ, मैं चैतन्यरूप हैं, शुद्ध एवं बुद्ध है, तो उसका यह कथन भूतार्थ कहा जाता है, क्यों कि यह परनिरपेक्ष है । मैं आपसे यह कह रहा था कि सम्यक दर्शन भी दो प्रकार का है-निश्चय और व्यवहार तथा भूतार्थ और अभूतार्थ । जब साधक की दृष्टि आत्म स्वरूप पर स्थिर रहती है और जब वह अपनी आत्मा पर आस्था करता है, तो उसका यह निश्चय सम्यक् दर्शन है। देव, गुरु और धर्म की श्रद्धा को व्यवहार सम्यक दर्शन कहा जाता है। परन्तु जब यह आत्मा भेद-विज्ञान हो जाने पर स्वयं अपने आपको ही देव, स्वयं अपने आपको ही गुरु और स्वयं अपने आपको ही धर्म मानता है, तब वह निश्चय सम्यक् दर्शन होता है । आत्मा के मूल स्वरूप की प्रतीति को निश्चय सम्यक् दर्शन कहा जाता है । शेष सब व्यवहार सम्यक् दर्शन है। मैं आपसे यह कहूँगा, कि निश्चय हमारी मूल दृष्टि है, वही हमारा साध्य और लक्ष्य भी है, किन्तु व्यवहार का भी लोप नहीं करना है। जिन-शासन में न एकान्त निश्चय सुन्दर कहा गया है और न एकान्त व्यवहार को ही समीचीन कहा गया है। दोनों का समन्वय एवं सन्तुलन ही यहाँ पर अभीष्ट है। केवल निश्चय की बात कहकर व्यवहार का लोप करना न तर्क-संगत है और न शास्त्र-संगत ही। इतनी बात अवश्य है कि हम व्यावहाराभासरूप लोक-व्यवहार के झमेले में पड़ कर कहीं अपने लक्ष्य को न भूल जाएँ। अपने आत्मलक्ष्य को न भूल बैठे, इसलिए निश्चय दृष्टि और निश्चय नय की आवश्यकता रहती है । व्यवहार तभी तक ग्राह्य है, जब तक कि वह परमार्थ दृष्टि की साधना में सहायक रहता है। अतः निश्चय और व्यवहार दोनों का समन्वित और सन्तुलित रूप ही शास्त्रीय दृष्टि से समीचीन कहा गया है। सम्यक दृष्टि आत्मा वह है, जिसे इस लोक और परलोक का भय नहीं रहता। परलोक का अर्थ है-मरणोत्तर जीवन । प्रत्येक पंथ और सम्प्रदाय यह दावा करता है, कि जो कोई व्यक्ति उसके बताए पथ पर चलेगा वह परलोक में सुखी और समृद्ध होगा । अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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