Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 329
________________ ३३६ / अध्यात्म-प्रवचन ही संवेग है। जब आत्मा संसार के दुःखों एवं क्लेशों को देखकर भयभीत होता है, तो उसके मन में दुःखों एवं क्लेशों से छूटने का निर्मलभाव पैदा होता है, यही सवेग है। संवेग का तीसरा अर्थ हैभव-बन्धन से विमुक्त होने की अभिरुचि । संवेग शब्द के तीन अर्थों पर यहाँ पर विचार किया गया है-गमन, भव-भीति और मोक्ष की अभिरुचि । यह ग्रन्थकारों की अपनी बुद्धि का चमत्कार है, कि वे किस प्रसंग पर किस शब्द का क्या अर्थ करते हैं। किन्तु संवेग का अर्थ-मोक्ष की अभिरुचि ही अधिक संगत प्रतीत होता है। क्योंकि जब आत्मा में प्रशम और उपशमन भाव आ जाता है, तब उस आत्मा में मोक्ष की अभिरुचि का होना भी सहज हो जाता है। मोक्ष की अभिरुचि का अर्थ है कि संसार के अन्य पदार्थों की अभिरुचि का अभाव । संसार के पदार्थों की अभिरुचि का अभाव और मोक्ष की अभिरुचि का भाव-इन दोनों का तात्पर्य है, कि स्व में स्व की अभिरुचि । जब आत्मा अपने अतिरिक्त अन्य किसी की अभिरुचि नहीं रखता, तब उसे न भव बन्धनों का भय रहता है और न अध-पतन का ही भय रहता है । संवेग की यह परिभाषा और व्याख्या जब जीवन में साकार हो जाती है, तब समझना चाहिए कि उस जीवन में सम्यक् दर्शन के पीयूष का वर्षण हो रहा है। सम्यक् दर्शन तीसरा लक्षण है-निवेद । निर्वेद शब्द में जो वेद है, उसका अर्थ है-अनुभव करना । वेद के पूर्व जब निर् लगा देते हैं तब वह निर्वेद बन जाता है। निर्वेद शब्द का अर्थ है-वैराग्य, विरक्ति और अनासक्ति । यह संसारी आत्मा अनन्त काल से संसार के पदार्थों में आसक्त और अनुरक्त रहा है। जिस किसी भी पदार्थ को वह देखता है, उसे रागवश ग्रहण करने की इच्छा उसके मन में पैदा हो जाती है, इतना ही नहीं, बल्कि उस पदार्थ के उपभोग की कामना में भान भूल जाता है। संसारी आत्मा को काम और भोग सदा प्रिय रहे हैं । वह काम और भोगों में सदा बद्ध रहा है, इसी कारण वह अपने वास्तविक स्वरूप को जान नहीं सका । संसार के काम और भोगों के प्रति जब किसी · आत्मा में वैराग्य-भाव, विरक्ति और अनासक्ति आ जाती है, आत्मा की उस विशुद्ध स्थिति को ही यहां निर्वेद कहा गया है। निर्वेद का अर्थ है-जीवन की वह विशुद्ध स्थिति जब काम और भोगों के रहने पर भी उनकी रागरूप आसक्ति का अनुभव न हो अथवा काम और भोगों के रहने पर भी उनके प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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