Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 324
________________ सम्यक् दर्शन के विविध रूप | ३३१ कर्म का बन्धन अवश्य है, किन्तु मैं कर्म से विमुक्त हो सकता हैं, इस प्रकार का विश्वास ही कर्मवादी सम्यक् दर्शन है । कर्म वादी सम्यक् दर्शन में आत्मा यह विचार करता है, कि मैं स्वयं ही बँधा हूँ और मैं स्वयं ही अपनी शक्ति से विमुक्त हो सकता हूँ । मेरे अतिरिक्त अन्य कोई शक्ति ऐसी नहीं है जो मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध बन्धन में डाल सके । कर्मवादी सम्यक् दृष्टि आत्मा यह भी आस्था रखता है, कि मैं अपने पुरुषार्थ से कर्म के बन्धन को दूर कर सकता हूँ। मैं पीछे बता आया हूँ, कि प्रतिक्षण प्रत्येक वस्तु में अनेक परिणामों की परिणति होती रहती है । जैसा निमित्त और जैसी सामग्री मिल जाएगी, तदनुकूल योग्यता का परिणमन होकर, उस आत्मा का वैसा विकास हो जाएगा । कर्म की शक्ति अवश्य है, परन्तु कर्म के विषय में यह सोचना और विश्वास करना, कि कर्म के बिना कुछ भी नहीं हो सकता - यह विचार सम्यक् विचार नहीं है । इसका अर्थ यह होगा, कि हमने चेतन की शक्ति को स्वीकार न करके जड़ की शक्ति को ही सब कुछ स्वीकार कर लिया है । मैं पूछता हूँ आपसे कि जब आत्मा अपने पुरुषार्थ से बद्ध हो सकता है, तब वह अपने पुरुषार्थ से मुक्त क्यों नहीं हो सकता ? वस्तुतः बात यह है, कि अनादि कालीन बन्धन के कारण यह आत्मा अपने स्वरूप को भूल बैठा है । उसे अपने पर विश्वास नहीं रहा, और कर्म की शक्ति पर ही उसने विश्वास कर लिया है । इसीलिए वह अपने जीवन में दीनता एवं हीनता का अनुभव करता है । यह आत्मा अपने स्वरूप और अपनी शक्ति को कैसे भूल गया, इस तथ्य को समझने के लिए एक रूपक कहा जाता है । कल्पना कीजिए, एक वेश्या है, मनुष्य उसके रूप से विमुग्ध होकर उसके वशीभूत हो जाता है । वह इतना परवश हो जाता है कि अपनी शक्ति को भूलकर वह उस वेश्या को ही सर्वस्व समझने लगता है । परन्तु एक दिन जब वह वेश्या की मोह की परिधि से बाहर निकल जाता है, तब वह अपने वास्तविक स्वरूप को समझकर अपनी शक्ति पर विश्वास करने लगता है । यही स्थिति जीव और कर्म पुद्गल की है । जीव पुद्गल के मोह में आसक्त होकर अपने स्वरूप और अपनी शक्ति को भूल कर पुद्गल के अधीन हो गया है । किन्तु स्व स्वरूप की उपfब्ध होते ही, वह अपने विस्मृत स्वरूप को फिर प्राप्त कर लेता है । और अपनी अनन्त शक्ति का उसे परिज्ञान हो जाने पर फिर वह बन्धन बद्ध नहीं रह सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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