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३१० | अध्यात्म प्रवचन
स्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल ये पांचों द्रव्य जीव के सेवक और दास हैं । इनको इतना भी अधिकार नहीं है, कि वे जीव रूप राजा की आज्ञा में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित कर सकें । जीव रूपी राजा को धर्मास्तिकाय सेवक यह आदेश नहीं दे सकता, कि चलो, जल्दी करो । अधर्मास्तिकाय सेवक उस राजा को यह नहीं कह सकता, कि जरा ठहर जाओ । आकाशास्तिकाय यह नहीं कह सकता, कि यहाँ ठहरिए और यहाँ नहीं । पुद्गलास्तिकाय सदा उसके उपभोग के लिए तैयार खड़ा रहता है । काल भी उसकी पर्याय परिवर्तन के लिए प्रतिक्षण तैयार रहता है। ये सब जीव के प्रेरक कारण नहीं, मात्र उदासीन और तटस्थ कारण ही होते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं, कि सात तत्वों में, षड्द्रव्यों में और नव पदार्थों में सबसे मुख्य और सबसे प्रधान जीव ही है । इसी आधार पर जीव को चक्रवर्ती और अधिष्ठाता कहा जाता है। एक बात और है, हम जीव को अपनी अलंकृत भाषा में भले ही चक्रवर्ती कह लें, वस्तुतः वह चक्रवर्ती से भी महान है, क्योंकि चक्रवर्ती केवल सीमित क्षेत्र का ही अधिपति होता है । सीमा के बाहर एक अणुमात्र पर भी उसका अधिकार नहीं होता और उसका शासन नहीं चल सकता । परन्तु जीव में वह शक्ति है, कि जब वह केवल ज्ञान प्राप्त कर लेता है एवं अरिहन्त बन जाता है, तब वह त्रिलोकनाथ और त्रिलोकपूजित हो जाता है । त्रिलोक के समक्ष चक्रवर्ती के छह खण्ड का विशाल राज्य भी महासिन्धु में मात्र एक बिन्दु के समान ही होता है । चक्रवर्ती को चक्रवर्ती अन्य कोई व्यक्ति नहीं बनाता है, वह अपनी निज की शक्ति से ही चक्रवतीं बनता है । इसी प्रकार इस आत्मा को भी त्रिलोकनाथ और त्रिलोकपूजित बनाने वाली अन्य कोई शक्ति नहीं है, आत्मा स्वयं अपनी शक्ति से ही तीन लोक का नाथ और तीन लोक का पूज्य बन जाता है । मैं आपसे यह कह रहा हूँ, कि आत्मा को परमात्मा बनाने वाला अन्य कोई नहीं होता । स्वयं आत्मा ही अपने विकल्प और विकारों को नष्ट करके, आत्मा से परमात्मा बन जाता है ।
आप इस बात को जानते ही हैं, कि सिंह को वन-राज कहा जाता है । वन-राज का अर्थ है-वन का राजा, वन का सम्राट और वन का चक्रवर्ती। मैं पूछता हूँ आपसे कि आखिर उस सिंह को वन का राजा किसने बनाया ? कौन ऐसा पशु एवं पक्षी है,
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