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३१८ | अध्यात्म प्रवचन का परिज्ञान हो जाने पर और यह निश्चय हो जाने पर, कि मैं पुद्गल से भिन्न चेतन तत्व हूँ, फिर आत्मा में किसी प्रकार का मिथ्यात्व और अज्ञान का अन्धकार शेष नहीं रह सकता। अज्ञान
और मिथ्यात्व का अन्धकार तभी तक रहता है, जब तक 'पर' में स्वबुद्धि रहती है और 'स्व' में पर-बुद्धि रहती है। स्व में पर बुद्धि का रहना भी वन्धन है और पर में स्व बुद्धि का रहना भी बन्धन है । स्व में स्व बुद्धि का रहना ही वस्तुतः भेद विज्ञान है । जब स्व में स्वबुद्धि हो गई, तब पर में परबुद्धि तो अपने आप ही हो जाती है, उसके लिए किसी प्रकार के प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती। प्रयत्न की आवश्यकता केवल स्व स्वरूप को समझने की है। जिसने स्व स्वरूप को समझ लिया उसे फिर अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रहती।
एक बार हम कुछ सन्त बिहार-यात्रा कर रहे थे। संयोग की बात है, एक क्षेत्र में कुछ अधिक दिनों तक ठहरने का प्रसंग आ गया। एक विरक्त गृहस्थ भाई भी अपने साथ था ओर गोचरी करके भोजन लाता था । बचा हुआ भोजन गली के कुत्ते को डाल देता था। जब हमने वहाँ से विहार किया, तो वह कुत्ता भी साथ हो लिया। उसे दूर करने का बहुत प्रयत्न किया गया, किन्तु कुछ दूर जाकर फिर लोट आता, साथ के श्रावकों ने भी उसे वापिस गाँव में ले जाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु उस कुत्ते ने उस भाई का साथ नहीं छोड़ा। यह एक साधारण सी घटना है, किन्तु विचार करने पर इसमें से एक बहत बड़ा जीवन का मर्म निकलता है। जिस प्रकार रोटी का एक टुकड़ा डालने से कुत्ता साथ नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार संसार के ये कर्म-पुद्गल भी कुत्ते के समान हैं । राग एवं द्वेष का टुकड़ा डालने पर वे आत्मा के साथ चिपट जाते हैं, फिर सहज ही आत्मा का साथ नहीं छोड़ते। राग द्वेष का टुकड़ा जब तक डाला जाता रहेगा, तब तक कर्म रूप कुत्ता पीछा कैसे छोड़ सकता है ? संसार एक बाजार है। आप जानते हैं कि बाजार में हजारों दुकानें होती हैं, जिनमें नाना प्रकार की सामग्री भरी रहती है। बाजार में अच्छी चीज भी मिल सकती है और बुरी से बुरी चीज भी मिलती है। बाजार में कम कीमत की चीज भी मिल सकती है और अधिक मूल्य की वस्तु भी बाजार में उपलब्ध हो सकती है। यह खरीदने वाले की भावना पर है, कि वह क्या खरीदता है और क्या
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