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संसार और मोक्ष | ३१७
पूर्ण विश्वास जाग्रत होना ही चाहिए। शुभ और अशुभ के विकल्प जब तक बने रहेंगे, तब तक संसार का अन्त नहीं हो सकता, भले ही हम कितना ही प्रयत्न क्यों न कर लें ।
संसार के विपरीत मोक्ष मार्ग की साधना करना ही अध्यात्मवाद है । मोक्ष का अर्थ है - आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था जिसमें आत्मा का किसी भी विजातीय तत्व के साथ संयोग नहीं रहता और समग्र विकल्प एवं विकारों का अभाव होकर, आत्मा स्व स्वरूप में स्थिर हो जाता है । जिस प्रकार संसार के दो कारण हैं- आस्रव और बन्ध | उसी प्रकार मोक्ष के भी दो कारण हैं-संवर और निर्जरा । संवर क्या है ? प्रतिक्षण कर्म दलिकों का जो आत्मा में आगमन है, उसे रोक देना । प्रतिक्षण आत्मा कषाय और योग के वशीभूत होकर, नवीन कर्मों का उपार्जन करता रहता है, उन नवीन कर्मों के आगमन को रोक देना ही, संवर कहा जाता है । निर्जरा क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि पूर्ववद्ध कर्मों का एक देश से आत्मा से अलग हटते रहना ही निर्जरा है । इस प्रकार धीरे-धीरे जब पूर्वबद्ध कर्म आत्मा से अलग होता रहेगा, तब एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जबकि आत्मा सर्वथा कर्म-विमुक्त बन जाय । वस्तुतः इसी को मोक्ष कहा जाता है । संवर और निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं। क्योंकि ये दोनों आस्रव और बन्ध के विरोधी तत्व हैं । इस आधार पर यह कहा जा सकता है, कि जब तक सवर और निर्जरा रूप धर्म की साधना नहीं की जाएगी, तब तक मुक्ति की उपलब्धि भी सम्भव नहीं है । मोक्ष प्राप्त करने के लिए संवर और निर्जरा की साधना आवश्यक है, इसके बिना आत्मा को स्वस्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकती ।
मैं आपसे कह रहा था कि सप्त तत्वों में अथवा नव जीव ही प्रधान है । जीव के अतिरिक्त अन्य जितने भी तत्व हैं, वे सब किसी न किसी प्रकार जीव से ही सम्बन्धित हैं । जीव की सत्ता के कारण ही आस्रव और बन्ध की सत्ता रहती है। ओर जीव के कारण ही संवर एवं निर्जरा की सत्ता रहती है। मोक्ष भी क्या है, जीब की ही एक सर्वथा शुद्ध अवस्थाविशेष है । इस दृष्टि से विचार करने पर फलितार्थ यही निकलता है, कि जीव की प्रधानता है । समग्र अध्यात्म-विद्या का आधार ही यह जीब है, अतः जीव के स्वरूप को समझने की ही सबसे बड़ी आवश्यकता है । जीव के स्वरूप
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