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३०० | अध्यात्म-प्रवचन
क्योंकि वह नाम रूपात्मक होता है, किन्तु व्यक्ति का व्यक्तित्व अमर होता है, क्योंकि वह नाम और रूप से भिन्न विशुद्ध आत्म-तत्व होता है । भारत के बहुत बड़े विचारक विनोबा भावे से दिल्ली में जब मिलना हुआ, तब उस समय मंत्र-चर्चा का प्रसंग चला, कि “प्रत्येक पंथ और सम्प्रदाय अपने शिष्यों को अलग-अलग मन्त्र देते हैं। कोई 'नमः शिवाय' कहता है तो कोई 'नमो विष्णवे' कहता है । और भी अनेक मन्त्र ऐसे हैं, जिनमें व्यक्ति विशेष के नाम हैं और वे धर्मों को परस्पर मिलने नहीं देते ।" इस पर मैंने कहा कि “यह बात जैन धर्म में नहीं है । जैन-धर्म के मन्त्र में किसी के व्यक्तिगत नाम का उल्लेख नहीं किया गया है । जैन-धर्म के महामन्त्र नवकार में जिनको नमस्कार किया गया है, वे व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व के मूल आधारभूत तत्व हैं। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-इस प्रकार आत्मा के पांच शुद्ध स्वरूपों को उक्त मन्त्र में नमस्कार किया गवा है । इस मन्त्र में जैन संस्कृति के उपदेष्टा चौबीस तीर्थकरों में से किसी भी तीर्थंकर का वैयक्तिक नाम नहीं है। यद्यपि श्रमण संस्कृति में भगवान ऋषभदेव, भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है, तथापि इस मन्त्र में उनके नाम का उल्लेख भी नहीं है। यह मन्त्र नाम और रूप से बहुत दूर है । इसमें केवल आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ही उल्लेख किया गया है । अरिहन्त पद कहने से विश्व के समस्त अरिहन्तों का ग्रहण हो जाता है, फिर भले ही वे अतीत काल में हए हों और चाहे भविष्यकाल में होने वाले हों, अथवा वर्तमान काल में कहीं भी हों। इसमें देश, काल और जाति का बन्धन भी स्वीकार नहीं किया गया है फिर पंथ और सम्प्रदाय की बात तो हो ही कैसे सकती है । पंथ और सम्प्रदाय की बात वहीं आती है, जहाँ स्वरूप को मुख्यता न देकर नाम और रूप को मुख्यता दे दी जाती है । जहाँ नाम और रूप को ही महत्व मिलता है, वहाँ किसी न किसी सम्प्रदाय की गन्ध भी अवश्य ही आती रहेगी, और वहाँ किसी न किसी व्यक्ति का नाम भी अवश्य ही जड़ा हआ रहेगा। यदि किसी मन्त्र में किसी व्यक्ति का नाम दे दिया जाता है, तो वह मन्त्र असीम न रहकर सीमित हो जाता है । अतः नाम नहीं देने से इस मन्त्र में अनन्त सत्य को बिना नाम और रूम के बन्द कर दिया गया है। नाम और रूप अमर नहीं रहता है। भारतीय संस्कृति इस तथ्य को स्वीकार करती है कि नाम
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