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२९४ | अध्यात्म-प्रवचन विधि, जो सम्यक् दर्शन में एवं व्रताचरण में बाधा उपस्थित नहीं करती, उसे स्वीकार करने में जैन धर्म को किसी प्रकार की अड़चन नहीं है। जैन धर्म का कहना है कि सारे संसार में मानव जाति का एक ही रूप है, उसके विभिन्न रीति-रिवाजों से, उसकी परस्पर विरोधी परम्पराओं से तथा उसके विचित्र क्रिया-काण्डों से हमारा कोई झगड़ा नहीं है। केवल इतना ही ध्यान रखना आवश्यक है, कि उनसे सम्यक्त्व एवं सदाचार को किसी प्रकार की बाधा न पहुँचे । सम्यक् दर्शन में कोई धक्का न लगता हो और आत्म-भाव की साधना में किसी प्रकार की रुकावट न आती हो, तो फिर किसी भी रीति-रिवाज को मानने से हमारा क्या बिगड़ता है ? हम जीवन की किसी भी अवस्था में क्यों न रहें, हमारे लिए यही आवश्यक है, कि हम अपने स्वरूप को न भूलें। चाहे हम दान करें, शील का पालन करें और तप करें, किन्तु एक बात का ध्यान रखें, कि संवर और निर्जरा की साधना से हम अपनी आत्मा को पवित्र बनाते रहें। संवर और निर्जरा की साधना ही वास्तविक साधना है। इस साधना से ही सम्यक् दर्शन निर्मल, स्वच्छ, पवित्र और पावन होता है। इसी को अध्यात्म धर्म कहा जाता है|
एक शिष्य ने अपने गुरु से प्रश्न किया, कि “ससार और मोक्ष के क्या हेतु हैं ?" उक्त प्रश्न के उत्तर में गुरु ने बहुत ही सुन्दर समाधान दिया-"जो आस्रव है, वही संसार का हेतु है और जो संवर है, वही मोक्ष का हेतु है।" जो आस्रव है, वह चाहे शुभ हो या अशूभ हो, त्याज्य है। जिस प्रकार पाप त्याज्य है, उसी प्रकार अन्ततः पुण्य भी त्याज्य है। परन्तु जो संवर है, जिसमें न पुण्य है न पाप, जो शुभ और अशुभ दोनों से भिन्न है, वही ग्रहण करने के योग्य है । पुण्य हमें सुख देता है, इसलिए उसे पकड़कर बैठे रहें, और पाप हमें दुःख देता है, इसलिए हम उसे छोड़ दें, यह एक संसार की दृष्टि है। अध्यात्म-दृष्टि तो शुभ एवं अशुभ दोनों से ऊपर उठ कर आत्मा के विशुद्ध भाव को ही ग्रहण करती है। कल्पना कीजिए, आपके समक्ष एक ऐसा व्यक्ति खड़ा है, जिसने अपने शरीर पर दुग्ध-धवल वस्त्र धारण किये हुए हैं। यदि कोई व्यक्ति उसके ऊपर काली स्याही के छींटे देता है, तो वह क्रुद्ध हो जाता है और कहता है, कि तूने मेरे वस्त्रों को खराब कर दिया है। यदि कोई दूसरा व्यक्ति उसके उन्हीं वस्त्रों पर केशर का छींटा डालता है, तो वह कहता है, कि बहुत
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