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२८६ | अध्यात्म प्रवचन आराधना है । सम्यक दर्शन की उपलब्धि से पूर्व आत्मा को किसकिस परिस्थिति में से गुजरना पड़ता है और किस प्रकार अन्त में उसे सत्य की झाँकी मिलती है, यह शास्त्र का एक गम्भीर विषय है। यह एक ऐसा विषय है, जो आसानी से समझ में नहीं आता, पर सच्चे हृदय से प्रयास किया जाए, तो बहुत कुछ समझ में आ सकता है।
अनादि कालीन मिथ्या दृष्टि आत्मा को भव का भ्रमण करतेकरते और संसार के सन्ताप को सहते-सहते, कभी ऐसा अवसर भी प्राप्त हो जाता है, जबकि इसके मोह का प्रगाढ़ आवरण कुछ मन्द और क्षीण होने लगता है। शास्त्र में कहा गया है, कि अकाम निर्जरा करते-करते कभी ऐसा अवसर आता है, कि कर्मों की दीर्घ स्थिति भी ह्रस्व हो जाती है । मोह कर्म की उत्कृष्ट स्थिति शास्त्रकारों ने सत्तर कोटाकोटि सागरोपम को बतलायी है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ठ स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की बतलायी है। नाम कर्म की और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटि सागरोपम की बतलायी है। आयुष्य-कर्म को उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की बतलायी है। इन सभी कर्मों में से आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति घट कर, जब एक कोटाकोटि सागरोपम से भी किंचित् न्यून रह जाती है, तब आत्मा की वीर्य शक्ति में कुछ सहज उल्लास उत्पन्न होता है। इस उल्लास को अथवा आत्मा के इस विशिष्ट परिणाम को एवं भाव को शास्त्रीय भाषा में यथा-प्रवृत्तिकरण कहते हैं । यद्यपि इस स्थिति में आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि नहीं होती है, सम्यक् दर्शन अभी बहुत दूर की वस्तु है । इस स्थिति में आत्मा केवल अन्धकार से पराङमुख होकर प्रकाश की ओर उन्मुख ही हो पाता है । यथाप्रवृत्तिकरण की मूल भावना को सरलता के साथ हृदयंगम करने के लिए, कर्म-साहित्य में एक सुन्दर रूपक दिया है। ___कल्पना कीजिए, एक नदी है, जो पर्वतीय प्रदेश से बहतीबहती समतल भूमि की ओर आती है। आप जानते हैं जिस समय जल का वेग तेजी के साथ पहाड़ की ऊंचाई से समतल भूमि की नोचाई की ओर आता है, तब उस समय क्या होता है ? नदी के उस वेग में जो भी कोई शिला, शिला-खण्ड और पाषाण आ जाता
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