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२८४ | अध्यात्म-प्रवचन दर्शन मत करो । अशुभ का दर्शन विष है और शुभ का दर्शन अमृत है। यदि किसी की आलोचना करनी हो, तो स्नेह और सद्भाव के साथ उसकी आत्मा को जगाने के लिए आलोचना करो, उसकी आत्मा को और अधिक गिराने के लिए नहीं । आपकी आलोचना और टीका, फूल के समान सुरभित हो, काँटे के समान तीखी और नुकीली नहीं। किसी भी व्यक्ति की, किसी भी जाति की और किसी भी पंथ की आलो. चना, उसे गिराने के लिए मत करो, क्योंकि किसी को गिराना विष है, अमृत नहीं । आपकी आलोचना का उद्देश्य यह होना चाहिए, कि व्यक्ति अन्धकार से प्रकाश में आए। आलोचना करो, चाहे टीका करो, किन्तु एक बात को सदा ध्यान में रखो, कि हर आत्मा वही चाहता है, जो तुम अपने लिए पसन्द करते हो। यदि तुम्हें किसी की कटु आलोचना पसन्द नहीं है, तो दूसरे को भी तुम्हारी कटु आलो. चना पसन्द कैसे हो सकती है ? प्रत्येक आत्मा की शुभता एवं शुद्धता को देखो, उसकी अशुभता एवं अशुद्धता की ओर मत देखो, और यदि देखना ही हो तो हित-दृष्टि से देखो एवं विवेक-दृष्टि से देखो । क्योंकि विवेक ही अमृत है, विवेक ही सम्यक् दर्शन है । इस सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाने पर सब कुछ अमृत हो जाता है। विष रहता ही
नहीं।
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