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जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २८७ है तो आपस में टकराते-टकराते और घिसते-घिसते वह गोल और चिकना बन जाता है। यद्यपि एक विशाल पाषाण खण्ड का यह छोटा सा गोल और चिकना रूप एक दिन में बनकर तैयार नहीं होता । उसे इस स्थिति में पहुँचते-पहुँचते वर्षानुवर्ष व्यतीत हो जाते हैं। तब कहीं जाकर वह एक अनगढ़ पत्थर सालिग्राम बन कर पूजा का पात्र बनता है । यह एक रूपक है। सत्य के मर्म को समझने के लिए यह एक दृष्टान्त है। जो स्थिति पर्वत के इस पाषाण की होती है, वही स्थिति आत्मा की भी होती है । यह आत्मा भी भव' का भ्रमण करते-करते, संसार का सन्ताप सहते-सहते और संकट की विकट घाटी में से चलते-चलते इस स्थिति में पहुंच जाता है कि उसका तीव्रतम राग और उसका तीव्रतम द्वष कुछ मन्द होने लगता है । कषाय की इस मन्द अवस्था का नाम ही, यथाप्रवृत्तिकरण कहा जाता है। यथाप्रवृत्तिकरण में जो 'करण' शब्द है उसका अर्थ शास्त्रकारों ने जीव का परिणाम किया है। यथाप्रवत्तिकरण के दो भेद हैं-एक साधारण और दूसरा विशिष्ट । साधारण एवं सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण वाला जीव विशुद्धि के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो पाता है, क्योंकि यह सामान्य अथवा साधारण यथाप्रवृत्तिकरण इतना दुर्बल होता है, कि वह राग-द्वष की तीव्रग्रन्थि का भेदन नहीं कर पाता । उक्त सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण अभव्य जीवों को भी अनन्त बार हो चुका है। दूसरा यथाप्रवृत्तिकरण है-विशेष या विशिष्ट । इसमें इतनी क्षमता और शक्ति होती है, कि जिस आत्मा में यह परिणाम आता है, वह अन्धकार से निकलकर प्रकाश की प्रथम क्षीण रेखा को देख पाता है। यद्यपि इसमें भी सत्य के प्रकाश की उपलब्धि नहीं होती है, किन्तु इतना तो अवश्य है कि अन्धकार के विरोधी प्रकाश की एक क्षीण रेखा को देख लेता है। उक्त यथाप्रवृत्तिकरण के बाद आत्मा अपूर्वकरण आदि के रूप में भावविशुद्धि की ओर आगे बढ़ जाता है और सम्यग् दर्शन प्राप्त कर लेता है। और यदि भाव विशुद्धि की अपकर्षता होने लगे, तो फिर वापस लौट कर भव भ्रमण के चक्र में भटकने लगता है । भव-भ्रमण करताकरता और संसार के संताप सहता-सहता भव्यात्मा कभी इस स्थिति में पहुँच जाता है, कि उसकी वीर्य-शक्ति का उल्लास और अधिक प्रबल एवं उज्ज्वल बन जाता है, तब आत्मा के इस शुद्ध परिणाम को शास्त्रीय भाषा में 'अपूर्वकरण' कहा जाता है। अपूर्वकरण का अर्थ है-आत्मा की अपूर्व वीर्य-शक्ति, आत्मा का एक ऐसा दिव्य परिणाम
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