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२४० | अध्यात्म-प्रवचन वही स्थिति आत्मा की भी है । इस आत्मा में जब कभी उन्मग्नजला नदी के सछान उछाल आता है, तब यह अपने अन्दर में से बाहर के हर विकार को बाहर ही फेंकती रहती है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि ज्यों ही कर्म-बन्ध होता है, त्यों ही उसका भोग भी प्रारम्भ हो जाता है । भोग का अर्थ है-अन्दर की वस्तु को बाहर की ओर फेंकना । आत्मा ने अनन्त अतीत में जो भी कर्म बन्ध किया है, कर्मों का भोग उसे बाहर की ओर फेंक देता है । भोग-काल में उदय-प्राप्त कर्म आत्मा के अन्दर टिका नहीं रह सकता। आत्मा ने अनन्त बार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय आदि कर्मों को बाँधा
और अनन्त बार भोग कर उन कर्मों के पुद्गलों को बाहर फेंक दिया। जो कर्म भोग लिया जाता है फिर वह कर्म आत्मा के अन्दर नहीं रह सकता । किसी भी कर्म का जब उदय काल आता है, तब स्वतः ही बिना किसी बाह्य प्रयत्नविशेष एवं पुरुषार्थ विशेष के आत्मा, कर्म रूप रोग को उछाल लगाकर उन्मग्नजला नदी के समान बाहर की ओर फेंकता चला जाता है। इसी को भोग की प्रक्रिया कहते हैं।
आत्मा में जब जागरण आता है और अन्दर से परम पुरुषार्थ फूटता है, तभी आत्मा की यह स्थिति होती है । आत्मा का अन्दर का जागरण और आत्मा का अन्दर का पुरुषार्थ अध्यात्म-साधना में एक महत्वपूर्ण वस्तु है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जब इस संसारी आत्मा में अन्दर का जागरण और अन्दर का पुरुषार्थ प्रकट होता है, तब यह आत्मा बिना किसी बाह्य निमित्त के ही कर्मों को बाहर फेंकना प्रारम्भ कर देता है । यह भी सम्भव है, कि कभी इसमें बाह्य निमित्त सहायक हो जाए। किन्तु मूल बात नियति एवं भवितव्यता की ही है। नियति एवं भवितव्यता दो प्रकार की होती हैएक वह जिसमें कोई बाह्य निमित्त नहीं रहता और दूसरी वह जिसमें कोई बाह्य निमित्त हो । जब आत्मा का मिथ्या दर्शन बिना किसी बाह्य निमित्त के नष्ट हो जाता है, तब उसे निसर्गज सम्यक् दर्शन कहा जाता है, और जब मिथ्या दर्शन के नष्ट होने में किसी बाह्य निमित्त का योग भी मिल जाए, तब उसे अधिगमज सम्यक् दर्शन कहते हैं । किन्तु अन्दर का पुरुषार्थ, जिसे मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम कहा जाता है, दोनों में समान भाव से रहता है। कुछ
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