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२४६ | अध्यात्म-प्रवचन लगता है । सम्प्रदाय वादी व्यक्ति कहता है, मेरु पर्वत पर विश्वास करना सम्यक् दर्शन है और नन्दनवन पर श्रद्धा करना सम्यक् दर्शन है। वह जड़ पदार्थों की बात तो करता है, किन्तु चेतन की बात को भूल जाता है । वह कहता है, कि मेरुपर्वत स्वर्णमय है, सोने का बना हुआ है, किन्तु इस देह में रहने वाले उस देही पर उसका विश्वास नहीं होता, जो वस्तुतः अध्यात्म साधना का मूल केन्द्र है । मेरुपर्वत की ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई पर विश्वास करने की अपेक्षा, अपनी आत्मा की ऊँचाई पर ही विश्वास करना मेरी दृष्टि में सच्चा सम्यक् दर्शन है। आश्चर्य तो इस बात का है, कि पथवादी व्यक्ति बाहर की जड़ वस्तुओं पर भी भगवान के नाम की मुहर लगाता रहता है और कहता है, कि यह सब कुछ भगवान ने कहा है, इसलिए इस पर विश्वास करो । परन्तु मेरे विचार में यह उचित नहीं है । यदि सम्यक् दर्शन को सुरक्षित रखना है, तो जड़ वस्तु की अपेक्षा चेतन के विज्ञान एवं विकास की ओर ही अधिक लक्ष्य देना चाहिए। किसी भी जड़ पदार्थ की ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई के ज्ञान से तथा कीट पतंगों की संख्या के ज्ञान से भगवान की सर्वज्ञता को सिद्ध करने का प्रयत्न व्यर्थ है। सोने और चाँदी के पलड़ों पर भगवान की सर्वज्ञता को तोलना, बुद्धिहीनता का ही लक्षण है । जीवन-विकास के लिए, मैं स्पष्ट कहता हूँ कि किसी भी पर्वत के ज्ञान की, किसी भी नदी के ज्ञान की एवं किसी भी आत्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थ के ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । एक मात्र आवश्यकता है, आत्म दर्शन की एवं आत्म-ज्ञान की । आत्म-ज्ञान के अभाव में सम्प्रदायवादी और पंथवादी नियम एवं उपनियम निस्सार हैं। कुछ लोग वेश-विशेष में श्रद्धा रखने को ही सम्यक् दर्शन समझते हैं। किन्तु यह भी उनके पंथवादी दृष्टिकोण का ही प्रसार है। किसी भी वेश-विशेष में, सम्यक् दर्शन नहीं रहता। सम्यक् दर्शन तो आत्मा का धर्म है, आत्मा के अतिरिक्त किसी भी बाह्य पदार्थ में उसकी सत्ता मानना संसार का सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। इसी प्रकार पूजा प्रतिष्ठा में, आहार विहार में और लौकिक व्यवहार में सम्यक् दर्शन मानना भी एक प्रकार का मिथ्यात्व ही है। किसी व्यक्ति को जाति से ऊँचा समझना और किसी व्यक्ति को जाति से नीचा समझना, यह भी एक प्रकार का मिथ्यात्व ही है। सम्यक् दर्शन न किसी जाति का धर्म है, न किसी राष्ट्र का धर्म है और न वह किसी पंथ-विशेष का ही धर्म है, वह तो एक मात्र आत्मा
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