________________
२७२ | अध्यात्म-प्रवचन
यह एक विचार का प्रश्न है, कि भगवान महावीर ने अथवा भारत के अध्यात्मवादी अन्य ऋषियों एवं मुनियों ने, अध्यात्म साधक के लिए कौन-सा मार्ग खोज निकाला है, जिस पर चलकर वह अपने अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त कर सके ? इसके लिए भारत के महापुरुषों ने और ऋषियों ने केवल एक ही मार्ग बतलाया है, और वह मार्ग है - भेदविज्ञान का । जिस घट में भेद - विज्ञान का दीपक प्रज्वलित हो जाता है, फिर उस घट में अज्ञान और अविद्या का अन्धकार कैसे रह सकता है ? मैं पूछता हूँ-वह भेद-विज्ञान क्या है ? वह भेद - विज्ञान है, सम्यक् दर्शन । सम्यक् दर्शन की ज्योति प्रकट होने पर ही आत्मा आत्मा को समझ सकेगा । भारतवर्ष के तत्व-चिन्तकों ने अपने चिन्तन और अपने अनुभव से, मनुष्य को निरन्तर ही अपने स्वरूप का दर्शन कराया है । अपने स्वरूप का दर्शन कराना ही वस्तुतः सम्यक् दर्शन है । महापुरुषों ने अपनी दिव्य वाणी से हमें अपने अन्तर की शक्ति का परिचय करा दिया है । यदि मनुष्य को अपने स्वरूप का बोध करा दिया जाता है, तो फिर इससे बढ़कर उसके जीवन के लिए और दूसरा कौन वरदान होगा ? कुछ लोग सोचते और प्रश्न करते हैं, कि तीर्थंकर एवं अन्य महापुरुषों ने क्या किया है ? किस प्रकार की साधना की है ? उन्होंने शरीर से कौन-कौन सी क्रियाएँ की हैं ? कौन - सा आसन और प्राणायाम किया है ? कौन-सा त्याग किया ? कैसी तपस्या की ? परन्तु वे यह नही समझते कि शरीर की ये स्थूल क्रियाएँ तभी सार्थक हैं, जबकि इनके अन्तर में रहने वाली ज्योति का परिबोध हो जाए । विचार ज्योति के अभाव में यदि शरोर से काम लेने और काम करने की हो बात का महत्त्त होता, तो हजारों कीड़े-मकोड़े तथा पशु-पक्षी भी, अपने-अपने शरीर से तपन आदि की क्रियाएँ करते रहते हैं । परन्तु वे विवेक और आत्मिक विचार से काम नहीं लेते हैं । जिस क्रिया में विवेक की ज्योति नहीं रहती, केवल शरीर का ही माध्यम रहता है, उसका अपने आप में कुछ भी महत्त्व नहीं है । अध्यात्मवादी दर्शन में जीवन के सम्बन्ध में कहा गया हैकि देह - दृष्टि और देह-क्रिया की अपेक्षा से एक मनुष्य में और पशु
में कुछ भी अन्तर नहीं है । अतः आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को देखने एवं जानने के लिए, शरीर के केन्द्र से ऊपर उठने की आवश्यकता है । इसके लिए अन्तर में विवेक की ज्योति जगाना आवश्यक है विवेक की ज्योति के अभाव में मात्र शारीरिक क्रियाओं का मुल्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org