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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २७६ अनादर न हो जाए । शरीर एक मन्दिर है, जिसके अन्दर आत्मरूप से परमात्मा का ही निवास है, अतः किसी भी प्रकार से आत्मा का अपमान नहीं होना चाहिए । आत्मा का अपमान, चेतन का अपमान है और चेतन का अपमान स्वयं परमात्मा का अपमान है। भारत की मूल संस्कृति में जड़ की पूजा का नहीं, चेतन की पूजा का अधिक महत्व है, साकार की पूजा का नहीं, निराकार की पूजा का अधिक महत्व है । जो संस्कृति यह मानकर चलती है, कि घट-घट में मेरा साँई रहता है, कोई भी सेज साँई से शुन्य नहीं है, उससे बढ़कर दूसरी और कौन ऊँची संस्कृति है। इस सम्बन्ध में दक्षिण भारत के प्रसिद्ध सन्त नामदेव के जीवन की एक घटना का स्मरण आ रहा है। नामदेव भारत का वह एक भक्त है, जिसकी गणना भारत के प्रसिद्ध सन्तों में की जाती है। नामदेव यद्यपि बहुत पढ़े लिखे न थे। जिसे आज की भाषा में शिक्षा कहा जाता है, वह किताबी शिक्षा नामदेव के पास नहीं थी, परन्तु जो तत्वज्ञान सम्भवतः उस युग के बड़े-बड़े विद्वानों में नहीं था, वह ज्ञान नामदेव के पास था । वेद, उपनिषद् और गीता सम्भवतः नामदेव ने न पढ़ी हों, किन्तु उनका समस्त ज्ञान नामदेव के जीवन में रम चुका था । नामदेव में सम्भवतः वेदान्त का ज्वार नहीं था, किन्तु नामदेव के जीवन में आत्मा का ज्वार और आत्मा की आवाज की बुलन्दी इतनी जोरदार थी, कि वह उनके समकालीन किसी अन्य वैष्णव विद्वान में नहीं थी। भक्ति-शास्त्र के अनुसार भक्त वह कहलाता है, जो सदा प्रभु की भक्ति में लीन रहता हो, इतना ही नहीं; सृष्टि के प्रत्येक चेतन में प्रभु का ही रूप देखता हो । भक्त को सत्य का दर्शन इस प्रकार होना चाहिए, जैसा कि नामदेव का था । नामदेव वास्तविक अर्थ में प्रभु के भक्त थे । ___ नामदेव के जीवन की वह घटना, जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया है, इस प्रकार है-एक बार नामदेव को कहीं से भोजन की सामग्री मिली, यद्यपि यह भोजन की सामग्री उन्हें बहुत दिनों के बाद उपलब्ध हुई थी। भूख अधिक थी और भोजन-सामग्री अल्प थी, परन्तु फिर भी नामदेव को उसी में सन्तोष था। सन्तोष से बढ़ कर इस संसार में अन्य कोई धर्म नहीं हो सकता, और यह सन्तोष नामदेव के जीवन के कण-कण में रम चुका था । उस उपलब्ध भोजन सामग्री से नामदेव ने दो-चार रोटियां बना लीं। रोटियां बनाने के
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