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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २७७
कहा - "हाँ, अवश्य कहो, मैं तुम्हारी बात को धैर्य के साथ सुनूंगा ।" कोयल ने अपने को सम्भालते हुए कहा - " आप इस देश को छोड़ कर किसी दूर विदेश में जा रहे हैं, किन्तु जरा अपनी बोली बदल कर जाना ।" कौवे ने कहा - " क्या मतलब है तुम्हारा ? क्या बोली बदलना मेरे हाथ की बात है ।" कोयल ने व्यंग के स्वर में कहा"यदि बोली बदलना तुम्हारे हाथ की बात नहीं है, तो विदेश में जाकर सत्कार पाना भी तुम्हारे हाथ की बात नहीं है ।" कोयल ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - " यदि सुदूर विदेश में जाकर भी तुम्हारी यही कटु-कठोर वाणी रही, तुम्हारा यही कुवचन रहा तथा बोलने का यही ढंग रहा, तो वहाँ पर ही तुम्हें तिरस्कार ही मिलेगा । जो व्यक्ति बाहर भी काला हो और अन्दर भी काला हो, उसे कहीं पर भी सुख चैन नहीं मिल सकता । बाहर का कालापन तो प्रकृतिदत्त है, किन्तु अपनी बोली को तो बदलो और अपने अन्दर के कालेपन को तो उज्ज्वल बना लो, फिर तुम्हें विदेश जाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी, इसी देश में तुम्हारा आदर और सत्कार होने लगेगा। देखते हो मुझे, मैं भी तो बाहर से तुम्हारे समान ही काली हूँ । किन्तु मेरा स्वर मधुर है, इसी आधार पर लोग मेरा सत्कार करते हैं ।" कोयल की बात कौवे के गले नहीं उतरी, और वह उड़ता ही चला गया । परन्तु निश्चय ही जीवन का एक यह बहुत बड़ा सिद्धान्त है कि जीवन में जब तक मन और दृष्टि नहीं बदलती, अशुभ दर्शन की वृत्ति नहीं बदलती, तब तक इस प्रकार के कौवों का कहीं पर भी आदर और सत्कार नहीं हो सकता । बाहर का रूप तो प्रारब्ध की वस्तु है, उसे बदला नहीं जा सकता, किन्तु अन्दर के रूप को बदलना तो इन्सान के अपने हाथ की बात है । बाहर की गरीबी और बाहर की अमीरी, बाहर की झोंपड़ी और बाहर के रंगीन महल प्रारब्ध से मिले है । सम्भवतः यह बदले भी जा सकते हों और नहीं भी बदले जा सकते हों, परन्तु अन्दर का मन तो बदलना ही पड़ेगा । कौवे को अपनी बोली का स्वर बदलना ही होगा । परन्तु सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि जब तक विचार में शुभ दर्शन नहीं आता, तब तक कुछ नहीं हो सकता । जो व्यक्ति अपने मन में अशुभ संकल्प रखता है, उसकी वाणी में और उसके आचरण में शुभ कैसे आ सकेगा ? जो व्यक्ति अपने आपको अपने मन में पापात्मा समझता है,
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