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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २५७
सकता है, तो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए तत्वार्थसूत्र रुचिकर हो सकता है । किन्तु तत्वार्थसूत्र को यह कह कर ठुकरा देना, कि वह वाचक उमास्वाति की कृति है, संस्कृत में है और नवीन है । यह भी एक प्रकार का मिथ्यात्व है, बुद्धि की मूढ़ता है और विचारों की जड़ता है । किसी भी पंथ का, किसी भी सम्प्रदाय का, किसी भी ग्रन्थ का और किसी भी व्यक्ति विशेष का आग्रह रखना, और उसकी बातों को अन्धभक्त होकर स्वीकार करना, एक प्रकार का मिथ्यादर्शन ही है । यहाँ पर मैं एक उदाहरण इसलिए दे रहा हूँ, कि पंथवादी लोग अपने पंथ का पोषण करने के लिए, किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की आड़ लेकर किस प्रकार सम्यक्त्व के नाम पर मिथ्यात्व की प्रचार करते रहे हैं ।
एक बार एक श्रमण से एक व्यक्ति ने प्रश्न किया, कि संवत्सरी के विषय में शास्त्र का प्रमाण दीजिए कि क्यों मनाई जाती है ? इस प्रश्न के उत्तर में तथाकथित विद्वान श्रमण ने कहा - 'कि संवत्सरी के दिन अधिकांश जीवों को नवीन आयुष्यकर्म का बन्ध होता है । अतः उस दिन आत्म-विशुद्धि के लिए आहार आदि का त्याग कर धर्माराधना में ही तल्लीन रहना चाहिए ।" उक्त प्रश्न और उत्तर से यह भलीभांति शांत हो जाता है, कि पंथवाद के नाम पर, पंथवादी लोग किस प्रकार घोर मिथ्यात्व का प्रचार एवं प्रसार कर सकते हैं । शास्त्र और आगम के नाम पर अपनी प्रतिष्ठा का प्रासाद खड़ा करने वाले लोग किस प्रकार मिथ्या विश्वास और मिथ्या विचार का प्रचार करते रहे हैं और कर रहे हैं। भक्त ने शास्त्र का प्रमाण पूछा था । परन्तु किसी भी शास्त्र एवं आगम ग्रन्थ का प्रमाण न देकर, तथाकथित भ्रमण ने अपना मनगढ़ंत समाधान प्रस्तुत कर दिया और अन्धभक उसे शास्त्र का गम्भीर ज्ञान समझकर नाच उठे और झूम उठे । क्या यह नवीन विचार का प्रचार नहीं है ? जब हर नवीन विचार मिथ्यात्व की कोटि में है, तब तथाकथित गुरु का उक्त आगमiधारहीन समाधान एवं कथन मिथ्यात्व की कोटि में क्यों नहीं ? परन्तु पंथवादी व्यक्ति उक्त तथाकथित गुरु के मनगढंत समाधान को मिथ्यात्व कहने के लिए इसलिए तैयार नहीं होता, क्योंकि वह उसके गुरु का कथन है। यह भी एक प्रकार का मिथ्यात्व है, बल्कि एक घोर मिथ्यात्व है, किन्तु पंथवादी लोगों ने उस पर सम्यक्त्व का लेबिल लगा दिया है ।
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