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२६६ | अध्यात्म-प्रवचन
विकार आ गया है, वही विष है । विष का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की विपरीतता ही विष है । यदि इस विपरीतता को हटा दिया जाए, तो फिर कहीं भी विष नहीं है, जो है सब अमृत हो अमृत है। जैन दर्शन की मर्यादा का ठीक अध्ययन एवं चिन्तन करने पर पता चलेगा, कि आत्मा में दो प्रकार के भाव हैं-विकारी भाव और अविकारी भाव । इसी को अध्यात्म - भाषा में स्वभाव और विभाव भी कहा जाता है । उदाहरण के लिए देखिए - दर्शन आत्मा का निज गुण है, उसकी दो पर्याय हैं - एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध । उसकी शुद्ध पर्याय को सम्यक् दर्शन कहा जाता है और उसकी अशुद्ध पर्याय को मिथ्यादर्शन कहा जाता है । इस दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है, कि सम्यक्दर्शन और मिथ्यादर्शन दो अलग तत्त्व नहीं हैं । आत्मा के दर्शन गुण का अशुद्ध रूप ही मिथ्या दर्शन है और आत्मा के दर्शन गुण का शुद्ध रूप ही सम्यक् दर्शन है । दोनों मूल में एक तत्व हैं, किन्तु उसके दो रूप प्रतिभासित होते हैं - एक विकारी और दूसरा अविकारी | विकारी रूप मिथ्या दर्शन है और अविकारी रूप सम्यक् दर्शन है | सम्यक् दर्शन अमृत है और मिथ्या दर्शन विष है । यही सत्य ज्ञान के सम्बन्ध में भी है। ज्ञान आत्मा का निज गुण है, किन्तु उसको दो पर्याय हैं - सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान । सम्यक् ज्ञान का अथं है - सम्यक्त्व सहचरित ज्ञान और मिथ्या ज्ञान का अर्थ है - मिथ्यात्व सहचरित ज्ञान । इस प्रकार सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान भी मुल में दो भिन्न तत्व नहीं है, बल्कि एक ही तत्व के दो रूप हैं । जैनदर्शन का कहना है, कि स्वतन्त्र रूप में दोनों अलग चीज नहीं है । अन्तर में सदा ही ज्ञान की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहती है तथा चेतना का अनन्त सागर लहराता रहता है । जब आत्मा की चैतन्य धारा से स्वयं विवेक शून्यता का विकार मिल जाता है, तब वह विकृत बन जाती है, अज्ञान हो जाती है । जब आत्मा की यही चैतन्य धारा स्व-पर विवेक का प्रकाश लेकर अपने स्वरूप की ओर उन्मुख रहती है, तब उसी धारा को सम्यक् ज्ञान कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान धारा जब आत्मभाव से अनात्म भाव की ओर उन्मुख हो जाती है, तब उसको मिथ्या ज्ञान कहा जाता है । मिथ्या ज्ञान विकारी भाव है और सम्यख ज्ञान अविकारी भाव है । सम्यक् ज्ञान, ज्ञान का विशुद्ध रूप है और मिथ्या ज्ञान, ज्ञान का अशुद्ध रूप है ।
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