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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २६५ प्रस्तुत सत्य के साक्षात्कार के साथ एक और प्रश्न है, जो आज से नहीं, चिरकाल से चर्चा का विषय रहा है। प्रश्न है कि उन तत्व ज्ञानियों ने और उन अध्यात्म-साधकों ने जीवन के सत्य को अमृत रूप में देखा अथवा विष रूप में देखा ? उनके चिन्तन एवं अनुभव में, जीवन अमृत था अथवा विष ? हजारों साधक ऐसे थे, जो संसार में ठोकरें खाते रहे हैं, उन्होंने कहा, कि जीवन विष है, इसमें कहीं पर भी अमृत रस दृष्टिगोचर नहीं होता है। उन्हें जीवन में विष के अतिरिक्त अन्य कुछ दष्टिगोचर नहीं हो सका। अपने चिन्तन एवं अनुभव के आधार पर यह कहा कि इस ससार में कदम-कदम पर दुःख, क्लेश, पीड़ा, अज्ञान और असत्य का साम्राज्य सर्वत्र फैला हुआ है । जब इस संसार में सर्वत्र विष का साम्राज्य व्याप्त है, फिर इसमें सुख और शान्ति कैसे मिल सकती है? परन्तु क्या वस्तुतः संसार का यह सही रूप है? क्या वास्तव में संसार का यह रूप, विष रूप है ? जेन-दर्शन में इस सम्बन्ध में कहा गया है, कि संसार को दुःख एवं कष्ट रूप में अथवा विष रूप में जो देखा जा रहा है, वह जीवन का वास्तविक स्वरूप नहीं है, बल्कि यह स्वयं की तुम्हारी कल्पना का रूप है, जीवन तो वास्तव में अमृत है। फिर भी यदि तुम्हें यह जीवन विषरूप लगता है, तो यह तुम्हारी अपनी दृष्टि का खेल है। जिसे आप विष समझते हैं, वह भी आखिर क्या वस्तु है ? विष एवं जहर भी तो अन्दर के अमृत का ही एक विकृत रूप है। अमृत में जब विकार आ जाता है, तब वह अमृत ही विषरूप में प्रतिभासित होने लगता है । अतः विष भी मूलतः अमृत का ही एक दूषित रूप आपके सामने खड़ा है । अध्यात्म-शास्त्र में कहा गया है, कि क्रोध क्या है ? वह क्षमा धर्म का ही एक विकृत रूप है । क्रोध की परिभाषा करते हुए कहा गया है, कि क्षमा का विकार ही क्रोध है । मूल में क्रोध कोई अलग वस्तु नहीं है। आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा, कि शास्त्रकारों ने लोभ के बारे में बताया है, कि अन्तर आत्मा में लोभ कोई स्वतन्त्र वृत्ति नहीं है, बल्कि आत्मा के मूल गुण सन्तोष का ही वह एक विकृत रूप है । मान और माया के विषय में भी यही सत्य है, कि वह अपने मूल गुण नम्रता एवं सरलता के विकृत रूप ही हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यह है, कि क्रोध, मान, माया और लोभ को शास्त्रीय परिभाषा में कषाय कहा गया है और जो भी कषाय है, वह सब चारित्र गुण का विकृत रूप होने से कुचारित्र है, मिथ्या चारित्र है । इस दृष्टि से मैं कह रहा था कि अमृत में जो
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