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२६० / अध्यात्म-प्रवचन कना ही है, और जिसका कोई उद्देश्य है, जिसका कोई एक लक्ष्य है, उसका जाना भी और उसका आना भी यात्रा ही है, भटकना और भागना नहीं । यही उक्त दोनों व्यक्तियों में विशेष अन्तर है। जो बात इन दो के सम्बन्ध में है, वही बात मिथ्या दृष्टि और सम्यक् दृष्टि की भी है। मिथ्या दृष्टि क्रोधादिरूप में आत्मारूपी घर से बाहर चला जाता है, फिर कदाचित् क्षमादिरूप में वह लौट भी आए, किन्तु उसका लौटना भी जाने के बराबर ही है, क्योंकि-न उसके जाने में विवेक है और न उसके आने में विवेक है। इसके विपरीत सम्यक् दृष्टि आत्मा आत्मारूपी घर में ही रहता है। कभीकभी विभाव-भाव की परिणति भी उसके जीवन में आती रहती है, किन्तु अपनी विवेक दृष्टि के कारण वह शीघ्र ही सावधान हो जाता है, और फिर विभाव से हटकर स्वभाव में स्थिर हो जाता है। इसी आधार पर मैं यह कहता हूँ, कि मिथ्या दृष्टि भटकता है और सम्यक दृष्टि यात्रा करता है । सम्यक् दृष्टि आत्मा, कर्मोदय वश भले ही विभाव में भटके, किन्तु वह अपना घर अपनी आत्मा को ही समझता है। वह कभी भी विभाव को अपना स्वभाव नहीं समझता, किन्तु मिथ्या दृष्टि आत्मा अपने विभाव को ही अपना स्वभाव समझ लेता है, दोनों की दृष्टि में यही सबसे बड़ा. अन्तर है। इसी आधार पर दोनों की जीवन चर्या में भी भेद खड़ा हो जाता है। सम्यक् दर्शन ज्ञान को अपने घर और अपने स्वरूप में ले आता है। वह भूले हए और भटके हुए ज्ञान को अपने घर में लाकर स्थिर कर देता है। आत्मा का वह ज्ञान सम्यक् दर्शन के द्वारा जब एक बार अपने घर में आ जाता है तब फिर वह पहले तो भटकता नहीं, यदि भटक भी जाता है तो फिर शीघ्र ही सावधान हो जाता है। अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में सम्यक् दर्शन का बड़ा ही महत्व है। कहा गया है कि तीर्थकर भी सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में तो निमित्त बन सकते हैं। किन्तु सम्यक् ज्ञान की उपलब्धि में वे निमित्त नहीं बन सकते। सम्यक् ज्ञान तो सम्यक् दर्शन द्वारा ही होता है। कुज्ञान के सुज्ञान होने में, मिथ्या ज्ञान के सम्यक् ज्ञान होने में, एकमात्र सम्यक् दर्शन ही साक्षात कारण है। __ अध्यात्म साधक की दृष्टि शान्त, दान्त और गम्भीर होनी चाहिए । साधना के पथ पर आगे बढ़ने वाले पथिक का हर कदम दृढ़ता और मजबूती के साथ पड़ना चाहिए। उसके मन में अपने
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