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२५२ ! अध्यात्म प्रवचन
में संलग्न रहे । वासना का सेवन भी किया और भयंकर युद्ध भी किये । संसार के कार्य करते हुए भी वे क्षायिक सम्यक् दृष्टि के रूप में इतने ऊँचे कैसे रहे ? यह प्रश्न उठना सहज है, किन्तु शास्त्रकारों ने इसका यह समाधान किया है कि वे बाहर से भोगी होकर भी अन्दर में त्यागी थे । चारित्रमोह के उदय से उनमें विषय का राग तो था, परन्तु दर्शन-मोह के क्षय हो जाने से उनकी दृष्टि में राग का राग नहीं था, उदासीन भाव था । यही कारण है कि वे संसार में रहे, संसार के भोग भी भोगे और भयंकर युद्ध भी किए, यह सब कुछ होते हुए और करते हुए भी उनका क्षायिक सम्यक् दर्शन अक्षुण्ण रहा। उनके क्षायिक सम्यक् दर्शन में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं हो सकी । जीवन की इतनी पवित्रता, इतनी उज्ज्वलता और इतनी महाता तभी अधिगत होती है, जब कि बाहर में वस्तु का राग होते हुए भी अन्दर में राग के प्रतिपक्ष वैराग्य की पवित्र धारा प्रवाहित हो और अनासक्ति का महासागर लहराता हो । यह वह स्थिति है, जिसमें चारित्रमोह का विकल्प तो होता है परन्तु दर्शनमोह का विकल्प नहीं होता । बाहर की वस्तुओं में मेरेपन का विकल्प तो होता है, मेरे पन की भूल तो होती है, परन्तु इन ममता के विकल्पों में निर्विकल्प स्व की अनुभूति विस्मृत नहीं होती ।
एक बार एक भाई ने मुझ से प्रश्न किया कि जब साधु आहार पानी करता है, निद्रा लेता है अथवा चलता फिरता है, तब उसमें साधुत्व का छठा गुण स्थान रहता है या नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा - उस स्थिति में व्यक्ति-विशेष को छठा गुणस्थान रहता है या नहीं, यह तो केवलज्ञानी के ज्ञान का विषय है, अथवा वह स्वयं ही अपने को समझे कि उस स्थिति में उसका कौन सा गुणस्थान है ? सामान्य रूप से सैद्धान्तिक समाधान है कि भोजन पान गमनागमन एवं शयनादि क्रियाएं करते समय भी साधु में साधुत्व रहता ही है । बाहर में अन्य क्रियाओं में संलग्न रहते हुए अन्दर में आध्यात्मिक भाव के मूल केन्द्र से सम्पर्क ज्यों का त्यों बना रहता है, वह टूटता नहीं है । साधुत्व भाव एक विलक्षण अन्दर की क्रिया है, उस का बोहर की भोजनपान आदि की क्रियाओं से कोई विकास एवं ह्रास नहीं होता है । यदि खान-पान पर ही अथवा आहार-विहार पर ही गुणस्थान का रहना और न रहना निर्भर करता है, तो छठे गुणस्थान की जो देशोनपूर्व कोटि तक की दीर्घ स्थिति बताई गई है, वह कैसे
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