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उपादान और निमित्त | २४१ विचारक देशनालब्धि को बड़ा महत्व देते हैं। उनका कहना है, कि उसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। इसके विपरीत कुछ विचारक यह भी कहते हैं, कि देशनालब्धि कुछ काम नहीं देती, जब तक कि नियति और भवितव्यता वैसी न हो। देशनालब्धि का अर्थ है-उपदेश रूप बाह्य निमित्त । यदि अन्दर का उपादान ही शुद्ध नहीं है, तो बाह्य निमित्त भी क्या काम करेगा? इस संसारी, आत्मा को अनन्त बार तीथंकरों का उपदेश सुनने को मिला और गणधरों का उपदेश सुनने को मिला, किन्तु फिर भी अभी तक इसका कल्याण क्यों नहीं हुआ ? तीर्थंकर और गणधर से बढ़कर देशनालब्धि और क्या होगी? परन्तु वास्तविकता है, कि जब तक अन्दर का जागरण न हो, तथा जब तक अन्दर का पुरुषार्थ न हो, तब तक देशनालब्धि भी प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर सकती। निमित्त चाहे तटस्थ हो और चाहे प्रेरक, उसका महत्व उपादान से बढ़कर नहीं हो सकता। यह एक ध्रुव सिद्धांत है । आत्माएँ सत्ता और स्वरूप में एक समान होने पर भी, उनमें निमित्त और भवितव्यता का भेद होने से, उनकी गति-मति में भेद हो जाता है। नियति और भवितव्यता के आधार पर ही उनके विकास में भी भेद हो जाता है। यह बात सिद्धांत और व्यवहार दोनों दृष्टियों से यथार्थ है।
जब तक उपादान को महत्व नहीं मिलेगा, तब तक आज के सम्प्रदायवादी और पंथशाही रगड़े और झगड़े भी समाप्त नहीं होंगे, क्योंकि वे सब बाह्य निमित्त के आधार पर ही खड़े हैं । यदि उपादान शुद्ध होता है, तो आस्रव का स्थान भी संवर का स्थान बन जाता है, और यदि उपादान शुद्ध नहीं है तो संवर का स्थान भी आस्रव का स्थान बन जाता है । यह एक ऐसा सिद्धांत है, जो पंथवाद और सम्प्रदायवाद की मूलभित्ति को ही हिला देता है । निमित्त के आग्रह से ही समग्र संघर्ष खड़े होते हैं । निमित्त को तटस्थभाव से ग्रहण करना चाहिए, परन्तु उसका आग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि निमित्त के आग्रह से ही राग एवं द्वष उत्पन्न होते हैं। ___मैं आपको अफ्रीका देश की एक परम्परा का वर्णन सुना रहा हूँ। वहाँ ऐसी परम्परा है कि जब कोई गुरु अथवा धर्माचार्य मर जाता है, तो उसके शिष्य एवं भक्त उसके शरीर को काट-काट कर प्रसाद के रूप में आपस में बाँट लेते है। उन लोगों का विश्वास है, कि ऐसा करने से गुरु का ज्ञान उन्हें भी मिल जाएगा। यह एक
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