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२३० | अध्यात्म-प्रवचन
और श्वेताम्बर कहते हैं कि-सिद्धसेन दिवाकर श्वेताम्बर थे । उभयपक्ष उन्हें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर तो मानता है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि कोई भी उन्हें आत्मज्ञानी मानकर उनकी उपासना करने और उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलने के लिए तैय्यार नहीं है। इतना ही नहीं, इस पंथवादी मनोवृत्ति ने उनके द्वारा प्रणीत ग्रन्थों में भी अपनी-अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल पर्याप्त परिवर्तन कर दिया है । यह सब कुछ क्या है ? मैं जब कभी इस प्रकार की घटनाओं का अन्तरनिरीक्षण करता है तो मुझे लगता है कि उभयपक्ष में कुठा समान भाव से आ चुकी है। वे अमृत को भूल गए और दुर्भाग्य से विष को अमृत समझकर पोते चले जा रहे हैं। ___ मैं आपसे सम्यक् दर्शन के स्वरूप की चर्चा कर रहा था। सम्यक् दर्शन आत्मा का एक विशुद्ध गुण है। क्योंकि आत्मा के दर्शन गुण के मिथ्यात्व पर्याय का जब नाश हो जाता है, तभी सम्यक्त्व पर्याय की उत्पत्ति होती है । सम्यक् दर्शन आत्मा की एक ज्योति है, आत्मा का एक प्रकाश है, किन्तु दुर्भाग्य है कि पंथवादी मनोवृत्ति ने सम्यक्त्व एवं सम्यक् दर्शन को भी अपने-अपने पक्ष में खींचने का प्रयत्न किया है । श्वेताम्बर अपने शास्त्रों को सम्यक्त्व का मूलाधार मानते हैं और दिगम्बर अपने शास्त्रों को। श्वेताम्बरों का कथन है कि श्वेताम्बर बनने से ही सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो सकती है, और दिगम्बरों का दावा यह है कि दिगम्बर होने से ही सम्यक् दर्शन की प्राप्ति हो सकती है । इस प्रकार पन्थवादी मनोवृत्ति ने केवल सम्प्रदाय के पोथी-पन्नों का ही बँटवारा नहीं किया, अपितु आत्मा के गुणों का और मुक्ति का भी बँटवारा कर लिया । बड़े ही अजब-गजब की बात है, एक के शास्त्र में दूसरे का विश्वास नहीं है, जबकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने शास्त्रों को सर्वज्ञ-कथित मानते हैं । इस पन्थवादी मनोवृत्ति ने शास्त्रों को बांटा, महापुरुषों को बाँटा और मुक्ति एवं आत्मा के गुणों का बँटवारा करने के लिए भी बैठ गये । पन्थवादी मनोवृत्ति किसी प्रकार के पन्थवाद में ही सम्यग् दर्शन की उपलब्धि मानती है। उसके पन्थ के बाहर जो कुछ भी है, फिर भले ही वह कितना ही स्वच्छ एवं पवित्र क्यों न हो, किन्तु वह उसे त्याज्य समझती है। इस प्रकार जो सम्यक् दर्शन हमारी अध्यात्म-साधना का मूल आधार था, सम्प्रदाय के नाम पर उसे भी बाँट लिया गया और उस पर भी
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