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उपादान और निमित्त | २३७ राजा दशरथ जिस शुभमुहूर्त में अपने प्रिय पुत्र राम को अयोध्या के सिंहासन पर बैठाना चाहते थे, और शुभमुहूर्त को सफल बनाने के लिए वे जितना भी कर सकते थे, उन्होंने वह सब कुछ किया, किन्तु नियति का खेल अटल था। जिस शुभमुहूर्त में राम को अयोध्या का सिंहासन मिलने वाला था, उसी मुहर्त में राम को अयोध्या से वनवास मिला । यह सब कुछ क्या है ? मनुष्य की भवितव्यता, नियति ही उससे सब कुछ कराती है। पुरुषार्थ करने की भावना भी तभी जागृत होती है, जबकि नियति वैसी हो। नियति के विरोध में प्रयत्न कभी सफल नहीं हो सकता। भले ही उसे कितनी भी तीव्रता के साथ किया जाए।
एक उदाहरण और लीजिए-आपके सामने दो व्यक्ति हैं, दोनों को समान रोग है और दोनों का एक ही वैद्य ने निदान किया है, एक ही दिन दोनों ने उपचार चालू किया, दोनों को औषधि भी एक ही जैसी मिली है। यह सब कुछ समान होने पर भी परिणामस्वरूप में एक स्वस्थ हो जाता है और दूसरा दीर्घकाल तक अस्वस्थ बना रहता है। यह क्यों हुआ? क्या कभी आपने इस प्रश्न पर गम्भीरता के साथ विचार किया है ? यह सब नियति का खेल है, यह सब नियति का चक्र है और यह सब नियति का चमत्कार है । यहाँ पर बाह्य निमित्त तो समान था, किन्तु उसके परिणाम परस्पर विरोधी क्यों हो गये ? यदि निमित्त में ही शक्ति होती, यदि पुरुषार्थ में ही शक्ति होती और यदि प्रयत्न में ही बल होता, तो दोनों को एक साथ स्वस्थ हो जाना चाहिए था। परन्तु मूल शक्ति नियति में रहती है, निमित्त में नहीं।
एक दूसरा उदाहरण लीजिए-रोग एक ही होता है, किसी का वह रोग बिना दवा के ही अच्छा हो जाता है और किसी का दवा लेने पर भी अच्छा नहीं होता । साधारण रोग ही नहीं, भयंकर से भयंकर रोग भी कभी-कभी बिना औषधि और बिना उपचार के ही ठीक होते देखे गए हैं । और कभी-कभी साधारण रोग भी बड़ी से बड़ी औषधि लेने पर शांत नहीं होते, मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि रोग कभी दवा का निमित पाकर शांत होता है और कभी बिना दवा के निमित्त के भी शांत हो जाता है। यह लोक-व्यवहार की बात है । प्रश्न है, ऐसा क्यों होता है ? समाधान के लिए दूसरी
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