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उपादान और निमित्त | २३३ वह सम्यक् दर्शन हर किसी व्यक्ति को हो जाना चाहिए, जिसको कि बाह्य निमित्त मिल जाता है । वस्तुतः होता यह है, कि जब तक मूल उपादान में परिवर्तन नहीं आता, तब तक एक बार क्या, हजार बार भी निमित्त मिलें, तो भी आत्मा में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आ सकता।
निसर्गज सम्यग् दर्शन के सम्बन्ध में एक प्रश्न है कि जब निसर्गज सम्यग् दर्शन बिना वाह्य निमित्त के अपने अन्दर के उपादान से ही होता है, तब उसमें देर सबेर क्यों होती है ? उपादान को तैयारी पहले क्यों न हई ? और सब आत्माएँ समान हैं, तो सबको सम्यक् दर्शन क्यों नहीं होता है ? अमुक काल विशेष में अमुक किसी एक आत्मा को ही सम्यक् दर्शन होने का क्या कारण है ? उक्त प्रश्न का समाधान है कि आत्मा अनन्त है, उनका स्वरूप एक होने पर भी व्यक्ति रूप में वे अनन्त हैं। आत्मा के उत्थान एवं विकास के काल-विशेष का आधार नियति एवं भवितव्यता को माना गया है। भवितव्यता
और नियति, दोनों का अर्थ एक ही है। प्रत्येक आत्मा की अपनी नियति और भवितव्यता दूसरी आत्मा की नियति एवं भवितव्यता से भिन्न होती है। यह ठीक है कि अनन्त आत्माओं में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और वीर्य आदि गुण समान होने पर भी उनकी नियति और भवितव्यता में भेद रहता है । प्रत्येक आत्मा की कर्म-बन्ध की प्रक्रिया भी भिन्न-भिन्न होती है। सत्ता और स्वरूप की दष्टि से आत्माओं में किसी प्रकार का विभेद नहीं है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि द्रव्य-दृष्टि से सिद्ध और निगोद के जीव समान हैं, क्योंकि सत्ता और स्वरूप की दृष्टि से उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता। संसारी आत्मा में अथवा मुक्त आत्मा में सत्ता और स्वरूप की दृष्टि से भेद न होने पर भी संसारी आत्माओं में नियति और भवितव्यता का भेद अवश्य रहता है।
यह संसारी आत्मा अनादिकाल से कभी जीवन के विकास के मार्ग पर चला है और कभी जीवन के पतन के मार्ग पर। कोई आत्मा विकास-मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ता जाता है और कोई आगे बढ़कर पीछे भी लौट आता है। यह एक अनुभव की बात है कि एक ही पिता के विभिन्न पुत्र एवं पुत्री एक जैसे नहीं होते । सब की गति और मति अलग-अलग होती है, सबके विचार भी अलग होते हैं और सबका
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