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२२६ | अध्यात्म-प्रवचन
रखता है, उस आदर्श की उपलब्धि का राजमार्ग भी वह प्रस्तुत करता है और कहता है, कि अध्यात्म-साधना के मार्ग पर चलकर विशुद्ध परमात्म भाव को प्राप्त किया जा सकता है । यह कठिन अवश्य है पर, असम्भव नहीं ।
इस विश्व - रचना में कार्य
इतनी चर्चा का सार तत्व इतना ही है, कि अध्यात्म-साधक अपनी अध्यात्म-साधना के बल एवं शक्ति पर आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकता है, और निश्चय ही कर सकता है, इसमें किसी प्रकार की शंका के लिए लेशमात्र भी अवकाश नहीं है । परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न साधन का एवं कारण का है। किसी भी साध्य की सिद्धि के लिए साधन की आवश्यकता रहती है । किसी भी कार्य की पूर्णता के लिए कारण की आवश्यकता रहती है । और कारण का भाव एक ऐसी कड़ी है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । कार्य-कारण का भाव एक ऐसा सिद्धान्त है, जिसके परिज्ञान के बिना साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । दर्शन - शास्त्र का यह एक मुख्य एवं प्रधान सिद्धान्त हैं, कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता है । कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि किसी कार्य की पूर्णता में हमें बाहर में कोई कारण नजर नहीं आता, परन्तु जब उसकी गहराई में उतर कर देखा जाता है, तब उसका कोई न कोई कारण अवश्य ही होता है । परन्तु यह नहीं माना जा सकता कि कहीं पर बिना कारण के भी कार्य हो सकता है और बिना साधन के भी साध्य की उपलब्धि हो सकती है । जिस कार्य की पूर्णता में अथवा जिस साध्य की उपलब्धि में बाहर से कोई कारण देखने में नहीं आता, तो निश्चय ही अन्तरंग में वहाँ कोई कारण अवश्य है । भले ही हम किसी कार्य के कारण को देख सकें, या न देख सकें, किन्तु उसकी सत्ता में हमें अवश्य ही विश्वास करना चाहिए ।
प्रस्तुत में सम्यक् दर्शन का वर्णन चल रहा है । सम्यक् दर्शन भी एक कार्य है और जबकि वह एक कार्य है, तब उसका कोई कारण होना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि बिना कारण के कोई कार्य होता, तो सारे संसार की व्यवस्था ही गड़बड़ी में पड़ जाती । अतः प्रत्येक कार्य के पीछे कारण की सत्ता अवश्य ही मानी जाती है । जब सम्यक् दर्शन का आविर्भाव होता है, और उस आविर्भाव में बाहर में न हम कोई शास्त्र स्वाध्याय देखते हैं, और न गुरु का उपदेश सुनते हैं, फिर
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