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सम्यक् दर्शन की महिमा | १९७ तैयारी के साथ, जब श्रीकृष्ण और पाँचों पाण्डव धातकीखण्ड की ओर चले जा रहे थे तब मार्ग में लवण समुद्र आया, जिसे पार करना किसी भी प्रकार शक्य नहीं था। श्रीकृष्ण ने समुद्र के देव की आराधना की और वह प्रकट होकर श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़ा हो गया और बोला-“कहिए, क्या आज्ञा है और मैं आपको क्या सेवा करूं ?" श्रीकृष्ण ने इतना ही कहा, कि "हम धातकीखण्ड जाना चाहते हैं, इसलिए जाने का मार्ग दे दो।" समुद्र देव ने प्रत्युत्तर में कहा-"आप वहां जाने का कष्ट क्यों उठाते हैं, यदि आपका आदेश हो, तो मैं स्वयं ही द्रोपदी को लाकर आपकी सेवा में उपस्थित कर सकता हूँ।" यदि आज के युग का कोई मनुष्य होता तो कह देता कि ठीक है, ला दीजिए। परन्तु श्रीकृष्ण ने कहा-"पद्मोत्तर राजा ने देवी शक्ति से द्रौपदी का अपहरण किया है। यदि हम भी देव शक्ति से ही द्रौपदी को प्राप्त करें, तो हमारी अपनी कोई विशेषता नहीं रहेगी। मनुष्य को किसी देव के बल में विश्वास करने की अपेक्षा स्वयं अपने बल में ही विश्वास करना चाहिए। तुम्हारी सहायता इतनी ही पर्याप्त है, कि तुमने हमें रास्ता दे दिया । यदि हम द्रौपदी को दैवी शक्ति के बल पर प्राप्त करें तो हमारे क्षत्रियत्व का तेज ही समाप्त हो जायेगा । हमें अपनी शक्ति के बल पर ही अपनी समस्या का स्वयं समाधान करना है और स्वयं अपने पुरुषार्थ के बल पर ही अन्याय का प्रतिकार करना है।" श्रीकृष्ण के मनोबल को देखकर तथा स्वयं की अपनी शक्ति में अटूट विश्वास देखकर देव बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने धातकी खण्ड जाने के लिए मार्ग दे दिया । श्रीकृष्ण और पाँचों पाण्डव धातकी खण्ड जा पहुंचे।
जिस समय मनुष्य अपनी आत्मशक्ति में विश्वास कर लेता है, उस समय बड़े-से-बड़ा काम भी उसके लिए आसान बन जाता है। श्रीकृष्ण और पाँच पाण्डव अपने साथ अपनी सेना को भी नहीं ले गए। उन्होंने कहा कि-"हम छह ही काफी हैं।" अपने पहुंचने की सूचना गुप्त न रखकर राजा पद्मोत्तर को दे दी गई । मनुष्य की रक्षा के लिए, जीवन में दो तत्वों की आवश्यकता रहती है-भक्ति और शक्ति । इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग मनुष्य के सामने अपने जीवन की सुरक्षा का नहीं रहता । शक्तिशाली अपने जीवन की रक्षा अपनी शक्ति के बल पर कर लेता है, किन्तु जिसमें शक्ति नहीं है, वह व्यक्ति भक्ति के बल पर, विनम्रता से अपने जीवन की रक्षा कर सकता है । श्रीकृष्ण ने धातकी
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