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२०६ / अध्यात्म-प्रवचन वे शुभ में अटक जाते हैं, फलतः अज्ञानवश शुभ को ही धर्म समझ लेते हैं। इस दृष्टि से यह कहा जाता है कि जब तक सम्यक दर्शन की उपलब्धि नहीं हो जाती है, तब तक धर्म अधर्म की समझ ही नहीं आती है।
सम्यक दर्शन क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्षइन तत्वों का एवं पदार्थों का सम्यक् श्रद्धान ही सम्यक् दर्शन है। ज्ञान, चारित्र और तप-ये तीनों जब सम्यक्त्व-सहित होते हैं, तभी उनमें मोक्ष-फल प्रदान करने की शक्ति होती है। क्योंकि सम्यक्त्व-रहित ज्ञान ज्ञान नहीं, कुज्ञान होता है। सम्यक्त्व-रहित चारित्र चारित्र नहीं, कुचारित्र होता है। सम्यक्त्व-रहित तप, तप नहीं, केवल एक प्रकार का कायक्लेश रूप कुतप ही है।
जैन-दर्शन में आराधना के चार प्रकार बताए गए हैं-दर्शन को आराधना, ज्ञान की आराधना, चारित्र की आराधना और तप की आराधना । उक्त चारों प्रकार की आराधनाओं में सबसे प्रथम आराधना सम्यक् दर्शन की है। शिष्य प्रश्न करता है, कि गुरुदेव ! जब उक्त चारों प्रकार की आराधनाएँ मोक्ष की साधना में समान हैं, तब फिर दर्शन की आराधना को अन्य आराधनाओं से मुख्यता एवं प्रधानता किस आधार पर दी गई है ? उक्त प्रश्न के समाधान में गुरु शिष्य से कहते हैं कि-सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान की साधना, चारित्र की साधना और तप की साधना मोक्ष का अंग न बनकर संसार की अभिवृद्धि का कारण बन जाती है। इसके विपरीत सम्यक्त्व-मूलक ज्ञान, चारित्र और तप ही संसारविनाशक मोक्ष के अंग बनते हैं। इसी आधार पर अन्य आराधनाओं की अपेक्षा दर्शन की आराधना को मुख्यता एवं प्रधानता दी गई है। कल्पना करो, दो व्यक्ति हैं । एक के पास एक रद्दी पाषाण खण्ड है और दूसरे के पास उतने ही वजन की एक बहुमूल्य मणि है । यद्यपि दोनों पत्थर हैं, इसलिए दोनों एक जाति के हैं तथा दोनों का वजन भी समान है, तथापि अपनी शोभा, अपनी कान्ति और अपने मूल्य के कारण पाषाण की अपेक्षा मणि का ही अधिक महत्व एवं गौरव रहता है। पाषाण का भार उठाने वाला व्यक्ति सोचता है कि मैं भार से दबा जा रहा हैं, जब कि मणि वाले व्यक्ति के लिए मणि का भार भार ही नहीं है, क्योंकि उसकी उपयोगिता इतनी महान है कि कुछ पूछिए नहीं। जिस प्रकार पाषाण का
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