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सम्यक दर्शन के भेद | २१३ कौन करे ? अध्यात्म शक्ति के धनो तीर्थंकर और भौतिक शक्ति के धनी चक्रवर्ती भी कर्मोदय के परिचक्र से बच नहीं सकते । कृतकर्मों का एवं कर्म के उदयभाव का भोग किए बिना छुटकारा किसी का नहीं होता । जो कर्म उदय में आ रहे हैं, उन्हें शान्त भाव से भोगो, उन्हें भोगते समय समभाव रक्खो, जिससे कि फिर उस कर्म का नवीन बन्ध न हो । यदि भोग के बाद फिर बन्ध हो गया, तो फिर भोग और फिर बन्ध, इस प्रकार भोग और बन्ध का यह परिचक्र चलता ही रहेगा । इस प्रकार कभी किसी की मुक्ति सम्भव नहीं रहेगी । इसलिए विवेक का मार्ग यही है, जो कर्मोदय प्राप्त हो चुका है, उसे आने दिया जाए, क्योंकि उसमें किसी का कोई चारा नहीं है । जो बँध चुका है, वह तो उदय में आएगा ही, परन्तु यह तो अपने हाथ में है कि आगे के लिए बन्ध न डाला जाए। बस, इसी के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एव सम्यक् चारित्र की अपेक्षा रहती है । आत्मा का भाव जितना विशुद्ध रहेगा, कषायों की मन्दता उतनी ही अधिक रहेगी, इतना ही नहीं, बल्कि कर्मों की विपाक शक्ति की तीव्रता भी मन्द होगी और दीर्घकालीन स्थिति अल्पकालीन हो जाएगी । अतः आत्मा के विशुद्ध भाव की अपार महिमा है ।
कल्पना कीजिए, एक सर्प पकड़ने वाला मनुष्य है, वह भयंकर से भयंकर सर्प को अपने गले में डाल लेता है । उसे न किसी प्रकार का भय होता है और न किसी प्रकार की चिन्ता ही रहती है । वह सपं उसके गले में ही क्या, शरीर के किसी भी अंग में क्यों न चिपट जाए, किन्तु सपेरा जरा भी विचलित नहीं होता । सर्प से उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता । क्योंकि भय का कारण जो विष है, उसने उसे निकाल फेंका है, दूर कर दिया है । भय सर्प में नहीं, सर्प के विष में होता है । और उसने सर्प की उस विष दाढ़ को निकाल फेंका है, जिसमें विष संचित होता था । इसलिए अब उसे किसी प्रकार का भय सर्प से नहीं रहा । एक बात और है, जिस मारक विष से साधारण मनुष्य भयभीत होता है, परन्तु एक चतुर वैद्य अपनी बुद्धि के प्रयोग एवं उपयोग से उसी मारक विष को तारक अमृत बना देता है । वह अमृत अनेक भयंकर से भयंकर रोगों को नष्ट करके रोगियों को नया जीवन प्रदान करता है । आत्मा और कर्म के सम्बन्ध में भी यही सत्य है, यही तथ्य है । जागृत आत्मा वह सपेरा है, जो अपने कर्म रूपी साँपों के राग द्वेषात्मक विष-दन्त को निकाल फेंकता है, फिर उसे कर्म रूपी सर्प से किसी प्रकार का भय नहीं रहला । कर्म तो
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