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सम्यक् दर्शन के भेद | २०७ अधिक भार उसके उठाने वाले को मात्र कष्ट रूप ही होता है, उसी प्रकार जीव को मिथ्यात्व का भाव कष्टकर ही होता है । मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, यद्यपि दोनों ही दर्शन जाति की दृष्टि से एक हैं, फिर भी अशुद्ध और शुद्ध पर्याय की दृष्टि से दोनों में रात-दिन का सा अन्तर है । मिथ्यात्व नहीं, सम्यक्त्व ही आत्मा को वास्तविक सुख, शान्ति और आनन्द देने वाला है, मिथ्यात्व तो भव-भ्रमण का मूल बीज होने के कारण स्वरूपोपलब्धि रूप मोक्ष के अभीष्ट फल को कभी प्रदान ही नहीं कर सकता । यही कारण है कि अध्यात्मशास्त्र में सम्यक्त्व का अत्यधिक महत्व है ।
आपके सामने सम्यक् दर्शन की चर्चा चल रही है । सम्यक् दर्शन का हेतु क्या है ? सम्यक् दर्शन किस प्रकार उत्पन्न होता है ? उक्त प्रश्नों के समाधान में अध्यात्म-शास्त्र में बड़ी गम्भीरता के साथ विचार किया गया है । यह तो स्पष्ट हो ही गया, कि सम्यक् दर्शन मोक्ष की साधना का परमावश्यक और सर्वप्रथम अंग है । किन्तु अब यह जानना शेष रह जाता है, कि सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति कैसे होती है ? सम्यक दर्शन के दो भेद बताए गए हैं - निसर्गज सम्यक् दर्शन और अधिगमज सम्यक् दर्शन | यह निसर्ग और अधिगम क्या है ? इसको समझना ही सबसे बड़ी बात है ।
निसर्गज सम्यक् दर्शन क्या है ? अध्यात्म शास्त्र में इसका क्या और कैसा प्रतिपादन किया है ? जिज्ञासु को यह एक सहज जिज्ञासा है । निसर्गज सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में कहा गया है, कि कुछ आत्मा अपने आध्यात्मिक जीवन विकास में जब आगे बढ़ते हैं, तब उनके उस अध्यात्म विकास क्रम के साथ बाहर के किसी भी निमित्त की कारणता नहीं होती है। इस तथ्य को भली भाँति समझ लेना चाहिए कि बिना कारण के किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । यहाँ पर सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति भी एक कार्य है, अतः उसका भी कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए । कारण क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि कार्य- उत्पादक सामग्री को ही कारण कहा जाता है । कार्यं - उत्पादक सामग्री के मुख्य रूप में दो भेद हैं- उपादान और निमित्त । उपादान का अर्थ है-निज शक्ति अथवा निश्चय । निमित्त का अर्थ है - परसंयोग अथवा व्यवहार । उपादान कारण की परिभाषा देते हुए कहा गया है, कि जो द्रव्य स्वयं कार्य रूप में परिणत होता है, वही उपादान बनता है । जैसे घटरूप कार्य के लिए
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