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सम्यक् दर्शन की महिमा | १६६ वीर है, और साथ ही उसकी प्रचण्ड सेना का बल भी कुछ कम नहीं है । दूसरी ओर हम हैं - एक मैं और पाँच तुम, अपने देश और घर से लाखों कोस दूर । सेना के नाम पर हमारे पास कुछ भी नहीं है, न गज, न अश्व और न अन्य कोई मनुष्य । इस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए ? सामने एक विशाल सेना है, इससे मोर्चा लेना है और विजय प्राप्त करना है ।" श्रीकृष्ण ने पाँच पाण्डवों के मन की बात को जाँचने के लिए प्रश्न किया, कि "बताओ, युद्ध करोगे या देखोगे ?” भीम का अभिमान गरजा और अर्जुन के धनुष की टंकार गूंज उठी उन्होंने कहा कि, "क्षत्रिय स्वयं युद्ध करता है, वह युद्ध का तमाशा नहीं देखता ।" श्रीकृष्ण ने पूछा कि - "युद्ध किस प्रकार करोगे ?" पाँचों ही पाण्डवों ने एक स्वर से सिंह गर्जना करते हुए कहा – “आज के इस युद्ध में या तो पाण्डव ही नहीं, या पद्मोत्तर ही नहीं ।" भावावेश में यह भान नहीं रहा कि हम क्या कह रहे हैं ? शत्रु के नास्तित्व से पहले अपने मुख से अपने ही नास्तित्व की घोषणा की जा रही है । सर्वप्रथम अपने अस्तित्व का इन्कार, कितनी बड़ी भूल ? मनुष्य का जैसा भी भविष्य होता है, भाषा के रूप में वह बाहर प्रकट हो जाता है । पाण्डवों का पराजित संकल्प भाषा का रूप लेकर अन्दर से बाहर प्रकट हो गया, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण अवाक् एवं स्तब्ध रह गए । श्रीकृष्ण ने दुबारा उसी प्रश्न को दुहराया, तब भी उन्हीं शब्दों में उत्तर मिला । श्रीकृष्ण ने मन ही मन सोच लिया कि पाण्डव, राजा पद्मोत्तर पर युद्ध में विजय प्राप्त नहीं कर सकते । जो स्वयं ही पहले अपने मृत्यु की बात कहते हैं, हारने की बात सोचते हैं । वे भला युद्ध में कैसे जीत सकेंगे ।"
युद्ध प्रारम्भ हुआ, पद्मोत्तर राजा की विशाल सेना सागर के समान गरजती हुई निरन्तर आगे बढ़ने लगी, यहाँ तक कि पाँच पाण्डव युद्ध करते हुए पीछे हटने लगे । उनके शरीर शत्रु के बाण प्रहारों से क्षत विक्षत हो गए, सब ओर रक्त की धाराएँ बहने लगीं । युद्ध में पैर जम नहीं रहे थे । न अर्जुन का बाण काम आया, न भीम की गदा सफल हो सकी और न युधिष्ठिर का खड्ग ही कुछ चमत्कार दिखा सका | श्रीकृष्ण ने देखा कि पाण्डव विकट स्थिति में फँस गए हैं एवं शत्रु के घातक प्रहार से अपने को सँभाल नहीं पा रहे हैं । श्रीकृष्ण ने सिंहनाद के साथ अपना पांचजन्य शंख बजाया, धनुष की टंकार को । श्रीकृष्ण के शंख और धनुष की भयंकर एवं भीषण ध्वनि को सुनकर
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