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साधना का लक्ष्य [९३
समाप्त किया जाता है । विपाक का अर्थ है-फल, रस एवं कर्म का उदयकाल । विपाक सहित को सविपाक कहा गया है । कर्मों के उदयकाल में कर्म के शुभ एवं अशुभ वेदन को ही विपाक कहा गया है । उस विपाक के द्वारा जो कर्मक्षय होता है, उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। सविपाक निर्जरा की क्रिया सदा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु वनस्पति, निगोद तथा स्वर्ग, नरक, मनुष्य और तिर्यञ्च आदि सभी गतियों में सर्वत्र एवं सर्वदा चलती ही रहती है। कर्मों को भोगकर समाप्त करने की क्रिया सदा काल से चलती आ रही है, यह सविपाक निर्जरा है । इसी के सम्बन्ध में कर्मफल के भोग को लेकर पहले विवेचना कर आए हैं । जीवन में यह सविपाक निर्जरा प्रतिक्षण होती ही रहती है। एक ओर कर्म का नवीन आगमन भी चालू रहता है, दूसरी ओर सविपाक निर्जरा भी प्रतिक्षण चालू रहती है। सविपाक निर्जरा के द्वारा जीव जिन कर्मों का फल भोगता है, उससे कहीं अधिक आस्रव से नवीन कर्म का बन्ध हो जाता है । अतः सविपाक निर्जरा के द्वारा कभी कर्मों का अन्त नहीं हो सकता।
दूसरी निर्जरा है-अविपाक निर्जरा । इसके द्वारा कर्म को बिना भोगे ही समाप्त कर दिया जाता है। जैन-दर्शन की साधना में दो तत्त्व मुख्य हैं-संवर और निर्जरा। मोक्ष के लिए इन दोनों को ही मुख्य साधन माना गया है। संवर एक वह साधना है, जिसके द्वारा नवीन कर्म के आगमन को रोक दिया जाता है। जैसे किसी तालाब में नाली के द्वारा जल आता रहता है और वह नवीन जल पुरातन जल में मिलकर एकमेक हो जाता है। यदि नाली के मुख को बन्द कर दिया जाए, तब तालाब में किसी भी प्रकार से नवीन जल नहीं आ सकेगा। पुरातन जल धीरे-धीरे सूर्य के आतप से एवं पवन के स्पर्श से सूखता चला जाएगा और एक दिन ऐसा होगा, कि वह तालाब सर्वथा जल से रिक्त हो जाएगा। यही सिद्धान्त कर्म और आत्मा के सम्बन्ध में लागू पड़ता है । आत्मा एक तालाब है, जिसमें शुभ एवं अशुभ आस्रव के द्वारा नवीन कर्म आकर पुरातन कर्म के साथ मिलता चला जाता है। यदि नवीन कर्म के आगमन को रोकना हो, तो उसके लिए सर्वप्रथम संवर की साधना आवश्यक है। संवर का अर्थ है-आत्मा में नवीन कर्मों के आगमन को रोकना । साधक जब संवर की साधना के द्वारा नवीन कर्म के आगमन को रोक देता है, तब उसके सामने
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