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११८ | अध्यात्म-प्रवचन वह आत्मा फिर अनन्त-अनन्त काल के लिए स्वस्वरूप में लीन हो जाता है । संसार से विमुक्त होना ही आत्मा का सबसे महान उद्देश्य है। परन्तु वह संसार क्या है ? 'पुत्र एवं कलत्र' यह संसार नहीं है, 'धनी एवं वैभव' यह संसार नहीं है, 'नगर एवं ग्राम' यह संसार नहीं है, 'स्वदेश और परदेश' यह संसार नहीं है, 'स्वर्ग और नरक' यह भी मूल संसार नहीं है । उक्त औपाधिक कर्मोदयजन्य संसार का भी मूल कारण वास्तविक संसार है-आत्मा का अपना अज्ञान, आत्मा का अपना मोह तथा आत्मा का अपना राग एवं द्वष। जिस क्षण और जिस समय आत्मा में पर्याय दृष्टि से संसार-दशा है, उसी क्षण और उसी समय आत्मा में द्रव्य दृष्टि से सिद्ध-दशा भी है। एक विकारी दशा है और दूसरी विशुद्ध दशा है । जब विकार एवं विकार के कारण पर्याय में न रहेंगे तब आत्मा पर्याय रूप से भी बद्ध दशा में न रहेगा। जिस प्रकार जल में उष्ण होने की योग्यता के कारण अग्नि के निमित्त से वर्तमान में उष्णता प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार संसारी जीव में अपनी विभावस्थिति के कारण अशुद्धता रहती है, परन्तु जैसे उष्ण जल को शीत बनाने के लिए यह आवश्यक है, कि अग्नि का संयोग उससे हटा दिया जाए, वैसे ही एक अशुद्ध आत्मा को शुद्ध करने के लिए यह आवश्यक है, कि उसमें से अज्ञान, मोह तथा राग एवं द्वष को दूर कर दिया जाए। जैन-दर्शन में मोक्ष एवं मुक्ति को अपवर्ग भी कहा जाता है, यह आत्मा की एक विशुद्ध स्थिति है। अपवर्ग शब्द में दो शब्द है-अप और वर्ग । वर्ग का अर्थ है-धर्म, अर्थ और काम । उनसे रहित जो है, उसे अपवर्ग कहा जाता है । अपवर्ग आत्मा की वह विशुद्ध स्थिति है-जहाँ न इन्द्रियों का भोग अर्थात् काम रहता है और न उसका साधन-अर्थ रहता है तथा जहाँ न काम और अर्थ को उत्पन्न करने वाला पुण्य रूप व्यवहार धर्म ही रहता है।
जैन-दर्शन की दृष्टि से आत्मा का कर्म के साथ परम्परागत अनादि सम्बन्ध है । परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि आत्मा कभी कर्मविमुक्त नहीं होगा। यदि आत्मा कर्म विमुक्त न हो, तो फिर किसी भी प्रकार की साधना करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। उस स्थिति में जीव का पुरुषार्थ, पराक्रम और प्रयत्न सब व्यर्थ सिद्ध होता है । आत्मा अपने प्रयत्न से बन्धन-विमुक्त हो सकता है। वह मोक्ष एवं अपवर्ग को प्राप्त कर सकता है, इसमें किसी भी प्रकार का
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