________________
धर्म-साधना का आधार | १७३
अध्यात्म-शास्त्र के अनुसार धर्म आत्मा की उस परम स्वरूपपरिणति को कहते हैं, जिसमें किसी बाह्य हेतु एवं कारण की अपेक्षा नहीं रहती । धर्म आत्मा का सहज शुद्ध स्वस्वभाव है । आत्मा के जितने गुण हैं वे सभी धर्म हैं । गुण को धर्म कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा में जितने गुण हैं वे सब उसके धर्म हैं । आत्मा में अनन्त गुण है, इसलिए आत्मा में अनन्त धर्म हैं । उन अनन्त धर्मों में परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं होता। क्योंकि प्रत्येक धर्म ar अस्तित्व अपनी-अपनी अपेक्षा से है । निश्चय दृष्टि से अहिंसा कहाँ रहती है ? आत्मा में । सत्य कहाँ रहता है ? आत्मा में । अस्तेय कहाँ रहता है ? आत्मा में । ब्रह्मचर्य कहाँ रहता है ? आत्मा में । और अपरिग्रह कहाँ रहता है ? आत्मा में । इस प्रकार शील, सन्तोष, विवेक, त्याग आदि-आदि अनन्त धर्मों का आधार एक मात्र आत्मा ही है ।
धर्म-तत्त्व इतना व्यापक है कि नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति भी इसकी सत्ता से इन्कार नहीं कर सकता । धर्म ही सबका प्राण है, धर्म के बिना व्यक्ति का कुछ भी मूल्य नहीं है । यह बात अलग है कि धर्म अनन्त स्वरूप है । किसी ने धर्म के किसी अंग विशेष को विकसित किया है और किसी ने किसी अंग विशेष को विकसित किया है । उदाहरण के लिए, प्रेम को ही लीजिए । यह एक आत्मा की परिणति - विशेष धर्म है, जो स्थिति विशेष से अशुभ, शुभ और शुद्ध रूप में प्रवाहित रहता है । प्रेम अपने आप में एक एवं अखण्ड होकर भी पात्र - भेद से विविध रूपों में अभिव्यक्त होता है । जैसे गंगा की निर्मल धारा का जल एक है, किन्तु किसी ने उसे अपने स्वर्ण पात्र में भरा, किसी ने उसे रजत - पात्र में भरा, और किसी ने उसे मिट्टी के पात्र में भरा । लोक व्यवहार में पात्र भेद से जल का भेद माना जाता है, वैसे ही प्रेम की धारा एक तथा अखण्ड होने पर भी पात्र -भेद के आधार पर उसके अगणित रूप हो जाते हैं। माता-पिता का अपनी सन्तान के प्रति जो प्रेम है, उसे वात्सल्य कहा जाता है । पति और पत्नी के मन में एक दूसरे के प्रति जो प्रेम है, उसे प्रणय कहा जाता है । शिष्य के मन में अपने गुरु के प्रति जो प्रेम है, उसे भक्ति कहा जाता है | भगवान के प्रति जो एक भक्त के मन में विशुद्ध प्रेम रहता है, उसे पराभक्ति कहा जाता है । भाई और बहिनों में तथा मित्रों में परस्पर एक दूसरे के प्रति जो अनुराग रहता है एवं प्रेम रहता है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org