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१६२ | अध्यात्म प्रवचन को सुनकर वह अपने अहंकार के विचार को और अपने अहंकार की भाषा को भूल बैठा था। उसमें अभिगृहीत मिथ्यात्व की जितनी तीव्रता थी, वह क्षीण हो चुकी थी। इस प्रकार उसका मिथ्यात्व जितना भयंकर था, उतना ही शीघ्र वह समाप्त भी हो गया। इन्द्रभूति गौतम, जो विजेता का दर्प लेकर भगवान के समीप पहुँचा था, और जिसके हृदय में यह भावना थी, कि मैं महावीर को अपना शिष्य बनाऊँगा, वह स्वयं विचार बदलते ही तत्काल भगवान का शिष्य हो गया । अन्य साधकों की तरह वह सूचना देने के लिए घर भी नहीं गया। इतना ही नहीं, अपने पाँच सौ शिष्यों को भी उसने भगवान महावीर का ही शिष्य बना दिया। कितनी विचित्र स्थिति है जीवन की यह, कि जो व्यक्ति गुरु बनने का अहं लेकर गया, वह स्वयं शिष्य बन गया। जिसे शिष्य बनाने चला था, उसे ही अपना गुरु बना लिया । गौतम के मन में जो अभिगृहीत मिथ्यात्व था, उसके दूर होते ही उसकी आत्मा में सम्यक् दर्शन का दिव्य प्रकाश प्रकट हो गया था ।
कभी-कभी ऐसा होता है, कि साधक साधना के पथ पर आकर फिर वापिस लौट जाता है । कुछ ऐसे भी हैं, जो गिरकर फिर सँभल जाते हैं । और कुछ ऐसे भी हैं, जो गिरकर फिर संभल नहीं पाते । परन्तु कुछ ऐसे विलक्षण साधक होते हैं, जो एक बार साधना-पथ पर आए, तो फिर निरन्तर आगे ही बढ़ते रहे । पीछे लौटना तो क्या, वे कभी पीछे मुड़कर भी नहीं देखते । इन्द्रभूति गौतम इसी प्रकार के साधक थे । एक बार साधना के पथ पर कदम रख दिया, तो फिर निरन्तर आगे ही बढ़ते रहे, कभी पीछे लौटकर नहीं देखा। यह भी नहीं सोचा, कि पीछे घर की क्या स्थिति होगी और घरवालों की क्या स्थिति होगी? इन्द्रभूति गौतम की इस स्थिति को देखकर, उसके छोटे भाई अग्निभूत और वायुभूति भी अपने-अपने शिष्य-परिवार के साथ भगवान के शिष्य बन गए । गौतम के समान उनका भी अभिगृहीत मिथ्यात्व टूट गया और उन्होंने भी सत्य-दृष्टि को पा लिया। यह अपने युग की एक बहुत बड़ी क्रांति थी, जिसका उदाहरण भारतीय इतिहास में दूसरा नहीं मिल सकता । परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न यह है, कि यह सब कैसे हो गया और क्यों हो गया ? बात यह है कि जब तक आत्मा अभिगृहीत मिथ्यात्व के अन्धकार में प्रसुप्त थी, तब तक उनके जीवन में किसी प्रकार का चमत्कार उत्पन्न न हो सका, किन्तु ज्यों ही अभिगृहीत मिथ्यात्व का अन्धकार दूर हुआ, त्यों ही उनकी प्रसुप्त आत्मा जागृत हो गई। अभिगृहीत मिथ्यात्व का शोर गुल बहुत
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