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सम्यक् दर्शन की महिमा | १९३ रहता है, परन्तु उसके जाते भी विलम्ब नहीं लगता । विचार बदलते ही जीवन की सम्पूर्ण दशा भी बदल जाती है, परन्तु अनभिगृहीत मिथ्यात्व इतनी शीघ्रता से नहीं टूट पाता, क्योंकि उसमें जीवन की वह मूढ़ दशा रहती है, जिसमें शुद्ध भाव की स्फुरणा नहीं हो पाती, यदि होती भी है, तो बड़ी कठिनता से और दीर्घकाल के बाद ।।
देह, इन्द्रिय एव मन आदि अनात्मा को आत्मा समझना अभिगृहीत मिथ्यात्व है। परन्तु आत्मा को किसी भी रूप में आत्मा ही न समझना, आत्मा का भान ही न होना, अनभिगृहीत मिथ्यात्व है। अभिगृहीत मिथ्यात्व में देहादि में आत्म-बुद्धि होती है, देहादि के अतिरिक्त शुद्ध चैतन्य रूप से आत्मा का भान नहीं रहता और यदि देहादि से भिन्न आत्मा की प्रतीति भी होती है, तो अणु या महत् परिमाण के रूप में, एकान्त अकर्ता या कर्ता के रूप में, एकान्त नित्य या अनित्य के रूप में स्वरूपविपर्यास होता है । अभिगृहीत मिथ्यात्वी आत्मा अपने देहादि के अध्यास में ही फंसा रहता है। इस देह के भीतर शुद्ध एवं चिद्घनानन्दस्वरूप एक आत्मरूपो सूर्य की उसे जब तक प्रतीति नहीं होती, तभी तक वह मिथ्यात्व में फंसा रहता है। इसके विपरीत जब उसे देहादि के अभ्रपटल से भिन्न आत्मा रूपी सूर्य की प्रभा का आभास मिल जाता है, अणु एवं एकान्त अकर्ता आदि का स्वरूपविपर्यास दूर हो जाता है, तब वह प्रबुद्ध एवं जागृत सम्यग् दृष्टि हो जाता है।
मैंने सम्यक् दर्शन की परिभाषा एवं व्याख्या करते हुए कहा था, कि तत्वार्थ श्रद्धान ही सम्यक् दर्शन है। आत्मा भी एक तत्व है, यदि उस आत्म-तत्व में श्रद्धान नहीं हआ है, तो सम्यक दर्शन कैसे होगा? आत्म-श्रद्धान के अभाव में मेरु, नरक, स्वर्ग आदि का श्रद्धान अतत्व का श्रद्धान हो होगा । सम्यक् दर्शन का अर्थ यह नहीं है, कि संसार के बाह्य पदार्थों पर तो श्रद्धा की जाए और उनके श्रद्धान की ओट में आत्मा को भुला दिया जाए। मेरे विचार में आत्म-श्रद्धा, आत्म-निष्ठा, आत्म-आस्था और आत्म-प्रतीति ही शुद्ध एवं निश्चय सम्यक् दर्शन है। आत्मा शुद्ध, बुद्ध, निरंजन और निर्विकार है । जब आत्मा के इस स्वरूप का श्रद्धान होता है, तब उसे तत्वार्थ श्रद्धान कहा जाता है। उसके साथ यह ज्ञान होता है, कि देह जड़ है एवं चेतना-शून्य है । मैं देह नहीं, बल्कि उससे भिन्न में चैतन्य हूँ। देह जड़ है और मैं चेतन है । मैं सत्, चित् एवं आनन्द रूप हूँ। शुद्ध निश्चय नय से मैं सिद्ध
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