________________
धर्म-साधना का आधार | १७६ कहेंगे कि 'नहीं' । ज्ञान होना अलग वस्तु है, किन्तु उसे जीवन में तब तक नहीं उतारा जा सकता, जब तक कि उस पर अध्यात्म भावनात्मक श्रद्धा एवं प्रतीति न हो । केवल सम्मान प्राप्त करने के लिए, अपने पांडित्य की धाक जमाने के लिए और केवल पैसा कमाने के लिए जो तत्त्व-चर्चा एवं तत्व-रुचि होती है, उससे आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता । इस प्रकार की तत्व-रुचि एक प्रकार का राग और एक प्रकार की इच्छा ही है। और इच्छा एवं राग कषाय-भाव है, फिर उससे आत्मा का विकास कैसे हो सकता है ? अध्यात्म-दर्शन कहता है, कि पहले अपने को समझो, पहले अपने को जानो और पहले अपनी सत्ता पर आस्था करो। यदि अपने को समझ लिया, तो सबको समझ लिया। अपने को समझना ही सच्चा सम्यक् दर्शन है । अपने से भिन्न पर-पदार्थ को तत्व-रुचि से कभी आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता, उत्थान नहीं हो सकता । पर-पदार्थ की रुचि और पर-पदार्थ की श्रद्धा मोक्ष को ओर नहीं, संसार की ओर ले जाती है, प्रकाश की ओर नहीं, अन्धकार की ओर ले जाती है तथा अमरता की ओर नहीं, मृत्यु की ओर ले जाती है । पर-पदार्थ की रुचि का अर्थ है-"स्व से भिन्न पर की ओर अभिमुख होना, आत्मा से भिन्न अनात्मा की प्रतीति करना।' पर-श्रद्धा का अर्थ है-"स्व से भिन्न अन्य पर विश्वास करना, और आत्मा से भिन्न अनात्मा पर विश्वास करना।" याद रक्खो, सबसे बड़ा धर्म सम्यक् दर्शन और सम्यक् श्रद्धान ही है। सम्यक् दर्शन के होने पर अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म आस्था में स्थिर रह सकता है । धर्म का अर्थ है-'स्व स्वरूपोलब्धि ।" जिसने अपने को समझ लिया, वस्तुतः वही धर्म के रहस्य को समझ सकता है। इसीलिए मैं कहता है कि पर-पदार्थ की तत्त्वरुचि और पर-पदार्थ का श्रद्धान धर्म नहीं हो सकता । आत्म-रुचि और आत्म-श्रद्धान ही सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ा कर्तव्य है । अहिंसा एवं सत्य आदि धर्म की साधना तभी सार्थक होती है, जब कि उनके आधारभूत आत्मा पर विश्वास हो । अभव्य और मिथ्या-दृष्टि आत्मा में सबसे बड़ी कमी यही है, कि वह जानता बहुत कुछ है, समझता बहुत कुछ है, किन्तु उसको स्वरूपोन्मुख-स्वरूप सम्यक् दर्शन और सम्यक् श्रद्धान का अभाव होने से वह मोक्ष के मार्ग को ग्रहण नहीं कर सकता। जब तक साधक मोक्ष के मार्ग की ओर उन्मुख और संसार-मार्ग को ओर विमुख नहीं होगा, तब तक वह कल्याण-पथ का पथिक नहीं बन सकता । तत्त्वार्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org