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सम्यग् दर्शन की महिमा
यह आत्मा अनन्त काल से भव-बन्धनों में आबद्ध है । बन्धन से विमुक्त होने के लिए, जिन साधनों की आवश्यकता है, उन्हीं का वर्णन आजकल यहाँ चल रहा है । आत्मा जब अपने स्वभाव को छोड़कर विभाव में चला जाता है, तब वह उसकी बन्ध-दशा कहलाती है । जब आत्मा के विभाव भावों का अभाव हो जाता है, और आत्मा अपने स्वभाव में रमण करने लगता है, आत्मा को उस अवस्था को मोक्ष-दशा कहा जाता है। साधक के जीवन में जब तक सम्यक् दर्शन आदि रत्नत्रय भाव की पूर्णता नहीं होती है, वहाँ तक उसे जो कर्मबन्ध होता है, उसमें रत्नत्रय की हेतुता नहीं है। याद रखिए, रत्नत्रय तो मोक्ष का ही साधक है, वह बन्ध का कारण नहीं होता । परन्तु रत्नत्रय भाव का विरोधी जो रागांश होता है, वही बन्ध का कारण होता है । साधक को जितने अंश में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र प्राप्त हो चुका है, उतने अंश तक उसे बन्धन नहीं होता । किन्तु जितने अंश में राग है, उतने ही अंश तक उसे बन्धन होता है । इस कथन पर से यही फलितार्थ निकलता है, कि आत्मा के बन्धनों का अभाव करने के लिए आत्मा का स्वस्वभाव ही सबसे प्रधान एवं मुख्य साधन है ।
सम्यक् दर्शन एक ऐसा आध्यात्मिक स्वभाव है, जिसकी तुलना
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