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१८० | अध्यात्म-प्रवचन
श्रद्धान का अर्थ जड़ पदार्थ का श्रद्धान नहीं है, बल्कि उसका सच्चा अर्थ आत्म-श्रद्धान एवं आत्म-भान ही है । पुद्गल की श्रद्धा करने से राग-द्वेष आदि कषाय घटते नहीं, बढ़ते हैं । राग एवं द्वेष आदि कषाय की क्षीणता एवं मन्दता तभी होगी, जब कि पुद्गल एवं जड़ तत्व का श्रद्धान न करके, आत्मा का श्रद्धान किया जाएगा । मोक्ष के साधक का यह कर्त्तव्य है, कि वह सबसे पहले स्व और पर में विवेक करना सीखे । स्व और पर का विवेक होने पर ही सच्चे धर्म की उपलब्धि हो सकती है और उसी धर्म से आत्मा का कल्याण हो सकता है, अन्यथा अनन्त भव-सागर में डूबते रहने के सिवा कुछ नहीं । कितनी विचित्र बात है, कि शरीर पर राग हो जाता है, धन पर प्रेम हो जाता है, विविध इन्द्रियों के विविध भोग्य पदार्थों पर आस्था जम जाती है, किन्तु आत्मा का अपने आप पर, निज शुद्ध स्वरूप पर विश्वास नहीं होता। याद रखिए, जब तक पुद्गल पर मोह रहेगा, तब तक आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकेगी । यह अन्तश्चित्त अनन्त - अनन्त काल से भोग - वासना का अधिष्ठान रहा है, अतः इसमें आज भी भोगों की दुर्गन्ध आती है । राग-द्वेष के वशीभूत होकर यह आत्मा क्षणिक सुख देने वाले पदार्थों में राग करता है और दुःख देने वाले पदार्थों में द्वेष करता है । राग करना और द्वेष करना, यही पतन का सबसे बड़ा कारण है । किसी पदार्थ को छोड़ देने मात्र से त्याग नहीं होता, किन्तु उस पदार्थ के प्रति आत्मविस्मृतिमूलक अथवा आत्म अस्थिरतामूलक जो राग है, उसका परित्याग ही सच्चा त्याग है ।
एक अनुभवी सन्त के पास एक बार एक धन-सम्पन्न व्यक्ति आया । सन्त उस समय अपने ध्यान योग में संलग्न थे । कोन आता है और कौन जाता है, इसका भान भी उन्हें नहीं था । वह भक्त आया और नमस्कार करके सन्त के समीप ही बैठ गया । सन्त ने जब अपनी समाधि खोली, तो आगन्तुक व्यक्ति ने नमस्कार करने के बाद सन्त से निवेदन किया कि "भगवन् ! मैंने अपनी सारी सम्पत्ति अपने परिवार के नाम करदी है । मैं अब किसी प्रकार का काम-धन्धा नहीं करता । सब कुछ छोड़ दिया है । यहाँ तक कि शरीर के वस्त्र भी साधारण हैं, खान-पान में भी अब मेरी विशेष रुचि नहीं रहती, किन्तु आश्चर्य है, कि सब कुछ त्याग देने पर भी अभी तक मुझे शान्ति नहीं मिली है । आप जैसे सन्तों के श्रीमुख से यह सुना था, कि जिस परिग्रह का संग्रह
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