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१७८ | अध्यात्म-प्रवचन
बातचीत की समाप्ति पर जब वह जाने के लिए तैयार हुआ, तो मेरे मन में उससे एक प्रश्न पूछने की भावना उत्पन्न हुई । मैं सोचता था कि यह एक जिज्ञासु व्यक्ति है, जिज्ञासा लेकर यहाँ आया है, अतः अपनी ओर से इससे किसी प्रकार का प्रश्न नहीं पूछना चाहिए । परन्तु लम्बी बातचीत के कारण मैं उसके स्वभाव से परिचित हो गया था, मुझे विश्वास हो गया था, कि मेरे कुछ भी पूछने पर वह बुरा नहीं मानेगा । मैंने पूछा - "क्या मैं भी आपसे कोई प्रश्न कर सकता हूँ ?” वह प्रसन्न होकर बोला - "हाँ अवश्य पूछिए । प्रश्नोत्तर से ज्ञान बढ़ता ही है ।"
मैंने अपने प्रश्न की भूमिका बनाते हुए कहा - " आपने प्राचीन आगम ग्रन्थ पढ़े हैं, आपने उत्तरकालीन जैन दर्शन के ग्रन्थों का अध्यन भी किया है और आपने अहिंसा और अनेकान्त पर गम्भीर चिन्तन एवं मनन भी किया है । तब यह तो संभावित है कि आप मांसाहार नहीं करते होंगे ।" वह मन्द मुस्कान के साथ बोला - "नहीं, मैंने मांसाहार का परित्याग तो नहीं किया है । "
मेरे मन और मस्तिष्क में यह विचार तेजी के साथ चक्र काटने लगा, कि "अहिंसा का इतना गहरा ज्ञान प्राप्त करने के बाद और तत्त्व-चर्चा में इतनी गहरी दिलचस्पी होने पर भी यह मांसाहार का त्याग नहीं कर सका ।" मैंने शान्त स्वर में अपने उक्त प्रश्न को फिर दूसरे रूप में प्रस्तुत किया कि - " आपने जैन आगमों का किस उद्देश्य से अध्ययन किया है ?"
मेरे प्रश्न का विद्वान प्रोफेसर ने उत्तर दिया कि "मैंने जैन धर्म के आगमों का और जैन दर्शन के ग्रन्थों का अध्ययन तथा अहिंसा एवं अनेकान्त का अनुशीलन आचार-साधना की दृष्टि से नहीं किया है। जैन आगमों का अध्ययन एवं जैन परम्परा के नियम - उपनियमों का अनुशीलन मैंने इसीलिए किया है, कि जैन-धर्म एवं जैन दर्शन का मैं अधिकारी विद्वान बन सकूँ और अपने देश के विश्वविद्यालयों में प्राच्यविद्या के अध्ययन एवं शोधकार्य की आवश्यकता पूर्ण कर सकं ।"
मैं आपसे कह रहा था, कि तत्त्व-रुचि उस विद्वान में बहुत थी और वह जैन दर्शन के सूक्ष्म से सूक्ष्म तर्क को पकड़ता था तथा विचारचर्चा के प्रसंग पर गहरे से गहरे उतरने की उसमें अद्भुत क्षमता भी थी । परन्तु क्या इस प्रकार के तत्व-ज्ञान और तत्व-रुचि से आत्मा का कल्याण हो सकता है ? मैं समझता हूँ- 'नहीं' । और आप भी यही
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