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१७६ / अध्यात्म-प्रवचन
न हो और तप का पालन किया जाए, यह साधक-जीवन की एक विचित्र विडम्बना है, यह एक अज्ञानता की दुःखद स्थिति है। जहाँ अज्ञान होता है, वहाँ श्रद्धान नहीं रहता और जहाँ श्रद्धान नहीं रहता, वहाँ धर्म भी नहीं रहना । कृति से पूर्व ज्ञप्ति चाहिए और ज्ञप्ति से पहले दृष्टि चाहिए, जहाँ दृष्टि शुद्ध होती है, वही ज्ञप्ति का प्रकाश फैलता है और ज्ञप्ति के प्रकाश में ही कृति सफल होती है। किसी भी धर्म-क्रिया को करने से पहले अपने मन में तोलो, और अपनी बद्धि में विचार करो कि मैं जो कुछ कर रहा है उससे मेरी आत्मा का विकास होगा कि नहीं। धर्म की सबसे सुन्दर परिभाषा एवं व्याख्या यही है, कि जिससे आत्मा का विकास हो, आत्मा का उत्थान हो और आत्मा के बन्धनों का अभाव हो, वही धर्म है ।
सबसे मुख्य और सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सम्यक दर्शन क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जाता है कि-तत्व-रुचि को सम्यक् दर्शन कहते हैं । परन्तु रुचि क्या है ? यह भी एक प्रश्न है । रुचि को धर्म कहा जाए अथवा अधर्म कहा जाए ? रुचि धर्म है अथवा कर्मों का औदयिक परिणाम है ? यह प्रश्न आज का नहीं, बहत प्राचीन है। इस प्रश्न पर गम्भीरता के साथ विचार करने पर ज्ञात होता है, कि रुचि वास्तव में एक प्रकार का राग है, एक प्रकार की इच्छा है। राग और इच्छा कषाय-भाव है। फिर उस रुचि को धर्म कैसे कहा जा सकता है ? जितना भी कषाय है, वह चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो, वह कभी धर्म नहीं बन सकता। रुचि एवं इच्छा को यदि धर्म माना जाए अथवा श्रद्धान माना जाए, तब तो संसार में कोई भी जीव अभव्य नहीं रहेगा, क्योंकि रुचि अभव्य में भी रहती ही है। यदि रुचि को ही श्रद्धान कहा जाए, तब तो मिथ्रादष्टि जीव को भी सम्यकदृष्टि कहना पड़ेगा, क्योंकि रुचि उसमें भी हो सकती है। फिर इस संसार में किसी भी जीव को अभव्य और मिथ्यादष्टि कहने का हमें क्या अधिकार है ? यदि कहा जाए कि केवल रुचि को ही हम श्रद्धान नहीं कहते, बल्कि तत्त्व-रुचि को श्रद्धान कहते हैं, इतना कहने पर भी मेरे विचार में उक्त प्रश्न का समाधान नहीं हो पाता है। क्योंकि तत्त्व-रुचि नास्तिक, अन्धविश्वासी और एक मांसाहारी व्यक्ति में भी किसी न किसी रूप में हो सकती है। तत्त्व-रुचि नहीं, तत्त्व-रुचि का लक्ष्य ही निर्णायक है। जो तत्त्व-रुचि आत्मलक्षी है, वह चेतना का
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