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धर्म-साधना का आधार | १७१ बादशाह अकबर ने जिज्ञासा के स्वर में पूछा-"क्या मतलब
तुम्हारा ?"
बीरबल ने मधुर स्वर में कहा-"जहाँपनाह ! आप भी तो किसी के दामाद हैं । मैं भी किसी का दामाद हैं और ये सभासद भी किसी न किसी के दामाद अवश्य हैं । आपके, मेरे और इन सभासदों के पद और प्रतिष्ठा का ध्यान रखकर ही, मैंने आपके लिए और अन्य सामंत राजाओं के लिए सोने की, अपने लिए और अन्य मंत्रियों के लिए चाँदी की शूलियां लगवाई हैं, तथा शेष जनता के लिए लोहे की शूलियाँ काम में लाई जा सकेंगी। पद और प्रतिष्ठा की दृष्टि से काफी सोच-विचार के बाद ही मैंने यह वर्गीकरण किया है।"
बीरबल की बात को सुनकर सभी सभासद हंस पड़े, बादशाह अकबर भी मन्द-मन्द मुस्कराने लगा। किन्तु संभलकर बोला--- "बीरबल, यह क्या तमाशा है ? मोत, और वह भी सोने और चाँदी के भेद से । मौत तो मौत है, चाहे सोने की शूली से हो, चाहे चाँदी की शूली से हो और चाहे लोहे की शूली से हो । सोने और चांदी की शूली पर चढ़ने वाला यदि यह अहंकार करे, कि मेरी मौत उन व्यक्तियों से अच्छी है, जिनको लोहे की शूली मिल रही है, तो यह एक प्रकार की मुर्खता ही होगी।"
बीरबल का चिंतन काम कर गया। दामादों को शूली देने का आदेश वापस ले लिया गया। किन्तु पद और प्रतिष्ठा के अहं पर वह चोट लगी कि काफी दिनों तक जनता की जबान पर यह चर्चा चलती रही।
कहानी समाप्त हो चुकी है। उसके मर्म को समझने का प्रयत्न कीजिए । मर्म यह है, कि संसारी व्यक्ति पाप को बुरा समझता है, किन्तु पुण्य को अच्छा समझता है । परन्तु जिस प्रकार पाप बन्धन है, उसी प्रकार पुण्य भी तो एक बन्धन है ? पाप लोहे की शूली है, तो पुण्य सोने की शूली है । शूली, शूली है । उन दोनों का कार्य एक ही है, किन्तु फिर भी मोह-मुग्ध आत्मा पुण्य के बन्धन को पाकर प्रसन्न होता है और सोचता है कि, मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ, कि मुझे लोहे की अपेक्षा सोने की शूली मिली है । तत्व-दर्शी आत्मा की दृष्टि में जिस प्रकार लोहे की शूली मृत्यु का कारण है, उसी प्रकार सोने की शूली भी मत्यू का कारण है। जिस प्रकार लोहे की बेड़ी बन्धन का काम करती है, उसी प्रकार सोने की बेड़ी भी बन्धन का काम करती है।
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