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अध्यात्मवाद का आधार | ११६
सन्देह नहीं है । आवश्यकता है आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को समझने की । मोक्ष और अपवर्ग प्राप्त करने के लिए सबसे पहले आत्म-बोध एवं आत्म-निश्चय की आवश्यकता है । उसके बाद ही अन्य ज्ञान की आवश्यकता है । क्योंकि भेद-विज्ञान के विषय मुख्य रूप से दो ही हैं- आत्मा और अनात्मा, स्व और पर तथा जीव और पुद्गल । प्रश्न होता है, हम अपने आपको कैसे जानें ? अध्यात्म-शास्त्र उक्त प्रश्न का समाधान करता है, कि अपने आपको अपने आपसे ही जानो । क्या कभी दीपक को देखने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता रहती है ? अपने आपको देखने के लिए भी अन्य किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं है । आत्मा अपनी जिस चेतना-शक्ति से जगत के पर पदार्थों को जानता है, उसी से वह अपने आपको भी जान सकता है । आत्मा का मुख्य परिणमन ज्ञान है। ज्ञान ही आत्मा को अन्य पदार्थों से पृथक् करता है। जब कि ज्ञान को हम आत्मा का निज गुण स्वीकार कर लेते हैं, तब इसका अर्थ यही है, कि आत्मा अपने आपको अपने आपसे ही जानता है । यही आत्मा का निज स्वरूप है । परन्तु अनन्त काल से आत्मा की परिणति आत्मा से भिन्न पुद्गल में निजत्व का अध्यास कर रही है । वस्तुतः यही आत्मा की मलिनता है । जब आत्मा स्व को पर में आरोपित करता है, और पर को स्व में आरोपित करता है, तब आत्मा का यह मिथ्यात्व-भाव ही उसका सबसे बड़ा बन्धन हो जाता है । यह मिथ्यात्व-भाव जब तक आत्मा में विद्यमान है, तब तक आत्मा के संसार - पर्याय का कभी अन्त नहीं हो सकता । संसार पर्याय का अन्त ही वस्तुतः मोक्ष है ।
आत्मा में अनन्त शक्ति है, परन्तु वह कर्म के आवरण से आच्छादित रहती है । यह कमें का आवरण इतना विचित्र एवं इतना विकट होता है, कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट नहीं होने देता । जिस प्रकार सूर्य का दिव्य प्रकाश मेघाच्छन्न होने के कारण अप्रकट रहता है, उसी प्रकार कर्मों के आवरण के कारण आत्मा की अनन्त शक्ति प्रकट नहीं हो पाती । आवरण हटते ही आत्मा की शक्ति प्रकट होने लगती है और वह अपने स्वरूप को पहचान लेता है। आत्मा पर सबसे बड़े भयंकर बन्धन अहं - बुद्धि और मम-बुद्धि के हैं । अहंता और ममता के कारण आत्मा अपने निज स्वरूप को पहचान नहीं पाता । आत्मबोध न होने के कारण आत्मा अनन्त काल से संसार में परिभ्रमण करता रहा है । जिस प्रकार बालक मिट्टी के घरोंदे बनाते
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