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१४२ | अध्यात्म प्रवचन उसे सम्यक् दर्शन की अमल ज्योति प्राप्त हो जाएगी। सम्यक् दर्शन के उस दिव्य आलोक में बाह्य दुःखों के बीच भी आन्तरिक सुखों के अजस्र स्रोत फुटेंगे। जीवन में कदम-कदम पर आध्यात्मिक आनन्द एवं शान्ति की अनुभूति होगी। सम्यक-दृष्टि आत्मा नरक में भी सूख एवं शान्ति का अनुभव करता है । इसके विपरीत मिथ्या-दृष्टि आत्मा स्वर्ग में जाकर भी परिताप एवं विलाप करता है । सम्यक्-दृष्टि आत्मा प्रतिकुलता में भी अनुकूलता का अनुभव करता है और मिथ्यादृष्टि आत्मा अनुकूलता में भी प्रतिकूलता का अनुभव करता है। सम्यक् दृष्टि आत्मा जहाँ कहीं भी रहता है सदा सुखी, शान्त एवं प्रसन्न होकर ही रहता है ।
आपने भगवान महावीर के साधक जीवन की उस कहानी को सुना होगा, जिसमें बताया गया है, कि एक संगम नाम का देव उनके साधना-बल एवं धैर्यबल की परीक्षा लेने के लिए स्वर्ग से चलकर मानवों की धरती पर आया था। उस संगम देव ने परम साधक, अपनी साधना में अचल हिमाचल के समान स्थिर तथा विचार और विवेक में सागर से भी गम्भीर भगवान महावीर को कितना भयंकर कष्ट दिया, कितना भयंकर दुःख दिया। उन कष्ट और दुःखों की दुःखद कहानी जब कभी पढ़ने और सुनने को मिलती है, तो हृदय प्रकम्पित हो जाता है । जो घटना सुनने में भी इतनी भयंकर है, तो जिस व्यक्ति पर जब वह घटित हुई होगी, तब उसका दृश्य कितना भयंकर होगा एवं कितना भयावह होगा ? कष्ट और दुःखों की यह परम्परा दो-चार घन्टों में अथवा दो चार दिनों में ही परिसमाप्त नहीं हो सकी, बल्कि निरन्तर छह मास तक चलती रही। छह महीनों तक लगातार वह भगवान को कष्ट देता रहा, किन्तु भगवान के शरीर का एक रोम भी उन कष्टों और दुःखों से प्रभावित एवं प्रकम्पित नहीं हो सका। कथाकार कहता है कि-अन्ततः दुःख सहने वाले की अपेक्षा, दुःख देने वाला हो विचलित हो गया । जिस जीवनज्योति को संगम बुझाना चाहता था, वह बुझ न सकी, बल्कि और भी अधिक वह ज्योतिर्मय एवं आलोकमय सिद्ध हुई । स्वर्ण जैसे अग्नि में तपकर और अधिक चमकता एवं दमकता है, वैसे ही भगवान महावीर का साधक-जीवन उस भयंकर कष्ट एवं दुःख की अग्नि में तप कर और भी अधिक चमका और दमका । यह सब कुछ कैसे हुआ,
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