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धर्म-साधना का आधार | १६५ वृक्ष को जड़ों में शक्ति नहीं रहती, जिस वृक्ष की जड़ें खोखली हो जाती हैं, उसे महामेघ की कितनी भी स्वच्छ जल-धारा मिले, सूर्य का कितना भी प्राण-प्रद प्रकाश मिले और जीवन को ताजा कर देने वाला कितना भी स्वच्छ पवन मिले, वह वृक्ष अधिक दिनों तक हराभरा नहीं रह सकता।
साधना के वृक्ष के सम्बन्ध में भी यही सत्य है। साधना-वृक्ष तभी तक हरा-भरा रहता है, जब तक कि सम्यक् दर्शन स्थिर एवं प्राणवान है । सम्यक् दर्शन ही वस्तुतः अध्यात्म-साधना के वृक्ष का मूल है । जब तक सम्यक् दर्शन का मूल स्थिर है और अन्तर्निविष्ट है, तब तक अहिंसा, संयम और तप की साधना निरन्तर विस्तृत होती चली जाएगी और धीरे-धीरे मोक्ष तक भी इसका विकास हो सकेगा। परन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में साधना-वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता अथवा उसे स्थिर नहीं रखा जा सकता । जिस आत्मा का सम्यक् दर्शन विशुद्ध नहीं है, वह आत्मा अपने स्वरूप को भी कैसे जान सकेगा ? जिस आत्मा ने स्व-स्वरूप को नहीं समझा, वह आत्मा धर्म की आराधना नहीं कर सकता। उसकी अहिंसा, अहिंसा नहीं रह सकती, उसका संयम, सयम नहीं रह सकता और उसका तप, तप नहीं रह सकता । यदि अध्यात्मवृक्ष का सम्यक् दर्शन रूप मूल से विच्छेद हो जाए तो वह सूख जाएगा, उसका विकास रुक जायेगा और क्षीण होकर वह धराशायी हो जाएगा। इसी आधार पर मैं आपसे यह कह रहा था, कि किसी भी धर्म की साधना करने से पूर्व यह जानने का प्रयत्न करो, कि सम्यक दर्शन को ज्योति का तुम्हारी दिव्य आत्मा में आकाश जगमगाया है या नहीं।
युद्ध-क्षेत्र में वही सेना विजय प्राप्त कर पाती है, जो निरन्तर आगे तो बढ़ती रहे, किन्तु जिसका अपने मुल केन्द्र से सम्बन्ध विच्छेद न हो । जिस सेना का अपने मूल केन्द्र से सम्बन्ध बना रहता है, वह सेना कितना भी लम्बा आक्रमण करे और कितनी भी दूर क्यों न चली जाए, परन्तु उसे पराजित करने की शक्ति किसी में नहीं होती। कल्पना कीजिए, सेना निरन्तर आगे बढ़ रही है, किन्तु दुर्भाग्य से उसका सम्बन्ध उमके मूल केन्द्र से टूट गया, तो निश्चित समझिए, उस सेना का भविष्य खतरे में पड़ जाता है और उसकी विजय कभी नहीं हो पाती । अतः चतुर सेनापति इस बात का निरन्तर ध्यान रखता है, कि उसको सेना का सम्बन्ध मूल केन्द्र से सदा बना रहे ।
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