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१६८ | अध्यात्म-प्रवचन
एवं सभासदों के लिए भी । मत्रियों को और सभासदों को मौन देखकर राजा ने फिर उनसे अपने प्रश्न का समाधान देने के लिए कहा, किन्तु किसी की कुछ भी समझ में न आया ।
सब विचारमग्न थे । इतने में ही वन- पालक ने आकर राजा को शुभ समाचार दिया, कि नगर से बाहर आपके उपवन में एक महान आचार्य अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ पधारे हुए हैं । राजा ने ज्यों ही यह समाचार सुना, त्यों ही उसे रात्रि में देखे हुए स्वप्न से गूढ़ रहस्य का अता-पता सा लगा । वह इस विचार पर पहुँचा, कि कहीं आचार्य ही तो मेरे स्वप्न का वह गीदड़ नहीं है, जो अपने पाँच सौ सिंह रूप शिष्यों पर आधिपत्य कर रहा है । आने वाली पूर्णिमा को चाँदनी रात में कहा जाता है कि राजा ने आचार्य जी के मकान के बाहर कोयलों के छोटे-छोटे कण बिखेर दिए । रात्रि में शिष्य बाहर जाने को आते और लौट जाते । उन कणों में उन्हें सूक्ष्म जीवों की प्रतीति होती, और दया का झरना मन में उमड़ पड़ता । परन्तु आचार्य बाहर आए तो उन्हें दलते - मलते चले गये । उन्होंने जीवों के सम्बन्ध में कोई भी जाँच नहीं की । शिष्यों को यह कहते हुए आगे बढ़ गये कि जीव हैं और मरते हैं तो हम क्या करें ? ये यहाँ आए ही क्यों ? और जब चलने पर कोयले मालूम हुए तो अपने शिष्यों पर खूब हँसे ।
आचार्य के पास बुद्धि, प्रतिभा एवं पांडित्य की कमी नहीं थी । वाणी का जादू भी उनके पास बहुत था, किन्तु यह सब कुछ होकर भी जीवन शोधन की वह अध्यात्म कला उनके पास नहीं थी, जिसे सम्यक् दर्शन कहा जाता है । गुरु-पद पर पहुँच कर भी आचार्य को चैतन्य की शुद्ध सत्ता पर आस्था न थी । आत्मा की विशुद्ध स्थिति एवं आत्मा के विशुद्ध स्वरूप मोक्ष एवं मुक्ति पर विश्वास न था । साधना तो की जा रही थी, किन्तु उसका लक्ष्य आत्मा की पवित्रता एवं स्वच्छता न होकर, लौकिक सुख भोग, कीर्ति, ख्याति और प्रसिद्धि मात्र था | दिखावा बहुत कुछ था, किन्तु अन्दर में सब कुछ शून्य ही शून्य था । आस्रव और संवर की व्याख्या करते थे । बन्ध और मोक्ष की चर्चा करते थे । मन में कुछ न था, किन्तु मुख में सब कुछ था । इसीलिए आचार्य अंगारमर्दन को अभव्य आत्मा कहा गया है । इस कथानक का फलितार्थ इतना ही है, कि आचार्य के पास बाह्य ज्ञान भी था और द्रव्य चारित्र भी था, किन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में वे
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