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धर्म-साधना का आधार
आज मुझे जिस विषय पर बोलना है, वह है धर्म । धर्म वस्तुतः बोलने का विषय नहीं है, आचरण का विषय है, किन्तु जिसको जाना नहीं, उसका आचरण ही कैसे किया जा सकता है ? जिसका आचरण करना है, उसको जानना भी आवश्यक है। ज्ञान के बिना क्रिया कैसी और क्रिया के बिना ज्ञान कैसा? जो कुछ जाना जाता है, वही किया जाता है, और जो कुछ किया जा रहा है, यह निश्चित है, कि वह पहले जान लिया गया है । अतः धर्म विचार और आचार का विषय तो है, पर बोलने का विषय नहीं है, क्योंकि बोलने से वाद बनता है और वाद से विवाद खड़ा हो जाता है । धर्म वाद एवं विवाद की वस्तु नहीं है । जब धर्म वाद और विवाद की वस्तु बन जाता है, तो वह धर्म, धर्म न रहकर सम्प्रदाय और पंथ बन जाता है । तब उसमें होती है खींचतान और अनबन । सच्चा साधक मुख से कहता नहीं है, स्वयं उसका चरित्र ही बोलने लगता है।
सबसे बड़ा विकट प्रश्न यह है, कि धर्म क्या है ? किसी पंथ का कर्म काण्ड धर्म नहीं है, वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है। पानी
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